पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/१८५

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निद्रा 12 91 नात् > " बाहु " 95 १६० भापा-विज्ञान अाधुनिक काल के प्रारंभ में ही ये हस्व स्वर हो गए थे और धीरे धीरे लुप्त हो गए । उस प्रकार हिंदी के अधिक तद्भव शब्द व्यंजनांत होते हैं। म feo से नींद दूर्वा दूब जाति जात् ज्ञाति भगिनी वहिन बाँह संग संग पायें पास् शब्द के अंत में जो व्यंजन अथवा स्वर रहते हैं वे धीरे धीरे क्षीण होकर प्राय: लुप्त हो जाते हैं । वैदिक से लेकर हिंदी तक की ध्वनियों का इतिहास यही बताता है। (१) अक्षर-लोप-छ: प्रकार के वर्ण-लोप के अतिरिक्त अक्षर- लोप के भी अनेक उदाहरण मिलते हैं। अक्षर का पारिभापिक अर्थ पोछे दिया जा चुका है। जब एक ही शब्द में दो समान अथवा मिलते जुलते अक्षर एक ही साथ आते हैं तो प्राय: एक अक्षर का लोप हो

जाता है; जैसे-वैदिक भाषा में मधुदुव (मधु देनेवाला) का म-दुब हो

जाता है। ऐसे अनेक उदाहरण वैदिक और लौकिक संस्कृत में मिलत है; जैसे शेववृधः से शवृधः, तुवीरत्रवान् से तुवीरवान्, शप्पपिंजर में शपिजर, पादत्त से श्रात्त, जहीहि से जहि । हि० बीता (बतस्ति ), हिं० पाया ( उपाध्यात्र.), म० सुकेल (सुके + केले ), गुराखी (गुरे + गयी ) आदि भी अच्छे साहरण है। पुर्यक-ग्रंथि से पलथी और "मानत हता" से मानत थो (मानता हता से मानता था) में भी अनर-नोप का प्रभाव स्पष्ट है। .