पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/१८९

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१६४ भाषा-विज्ञान श्राधुनिक भारतीय आर्य भापाओं का उदाहरण लें तो मध्य-व्यंजन लोप होने पर स्वरों की तीन ही गतियाँ होती हैं-(१) या तो स्वरो के बीच में विवृत्ति रहे जैसे हुआ; अथना (२) बीच में या अथवा व का आगम हो जैसे गत: से गअ होने पर गया और गया रूप बनते हैं; अथवा (३) संधि द्वारा दोनों स्वर्ग का ए भाव हो जाय जैसे चलइ का चलै, मई में आदि । ऐसे तीसरे प्रकार के ध्वनि-विकारों का अर्थात् स्वर- संधि द्वारा हुए परिवर्तनों का हमारी आधुनिक देश-भाषाओं में बाहुल्य देख पड़ता है। उदाहरण--खादति >खाइ>खाइ और खाय राजदूत:> राअउत्तु > राउन, चर्मकार:> चम्मआरु > चमार वचनं> वनणं > वयणु> बइन, बैनः; नगरं > ण अरो> नयरु> नहर >नेर (हिं०); समर्पयति>सअप्पेइ>स पेइ > उप्पइ, सउँपे> सौंपे; अपर:> अवरु> और; मुकुट > मउडु> मौर; मयूर> मऊरो> मोर; शतं > सश्र, स-श्रो और सए > सउ> सइ> सव, सौ, से, सय, सो (गु०) इत्यादि । भापा की यह साधारण प्रवृत्ति है कि नियाँ एक दूसरी पर प्रभाव ढाला करती हैं, कभी कोइरण दूसरे वर्णो सजातीय तथा सरूप (६) सावण्यं अथवा बनाता है और कभी सजातीय को निजातीय और विरूप । एक वर्ण के कारण दूसरे वण का सजातीय अथवा सवर्गी बन जाना सावर्ण्य कहलाता है और वित्तीय हो जाना असा र्य । सावर्ण्य और असावये, दोनों ही दो दो प्रकार के होते हैं-(१) पूर्व-सावर्ण्य, (२) पर मावण्य, (१) पृ । सायं ( अथवा पूर्व वैरूप्य ), (४) परा- सावये। जब पूर्व-वण के कारण पर-वर्ण में परिवर्तन होता है नय (क) यह कार्य पूर्व पावर्य कहलाता है; जैस-चक स चा; सपनी से सरत्ती, 'अग्नि से अगी इत्यादि। यह चक्र में 'क' ने 'र' को, सपनो में तने 'न' को और अग्नि में नन को अपना सवर्ण बना लिया है। प्राकन में इस प्रकार के मुषा ( मुक्त ), तया ( तक) या (ध्यान), वेग्गा (बैंगग्य ) याति असंख्य शब् इमी सावण्य मालप्य