पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/१९०

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ध्वनि और ध्वनि-विकारं १६५ विधि से निष्पन्न होते हैं। यही सावर्ण्य देखकर हो मूर्धन्यभाव का नियम बनाया गया है। उसी पद में र और प के पर में जो दैत्य-वर्ण आता है वह मूर्धन्य हो जाता है; जैसे-तृण मृणाल, रामेण, मृग्यमाण, स्तृणोति, मृण्मय आदि। यह नियम वैदिक, प्राकृत सभी में लगता है। वैदिक मूर्धन्य वर्गों के विषय में तो यह नियम कहा जा सकता है कि वे दैत्य वर्णों के ही विकार दुस + तर = दुष्टर, निजद = नीड, मृप+ त = मृष्ट, दुस+धी-दृढी (दुर्बुद्धि) दृहू + त=दृढ, नृ + नाम = नृणाम् श्रादि की रचना में पूर्व सावर्ण्य का कार्य स्पष्ट है । वैदिक भाषा में तो यह पूर्व-सावर्ण्य विधि केवल दो वर्गों की संधि में अथवा समानपद में ही नहीं, दो भिन्न भिन्न पदों में भी कार्य करती है; जैसे-इंद्र एवं (ऋ० १२१६३०२); परा शुदस्व इत्यादि । (ख) जब परवर्ती वर्ण अथवा अक्षर पूर्व-वर्ण अथवा अक्षर को अपना सवर्ण वनाता है तब यह क्रिया परसावर्ण्य कहलाती है; जैसे-- कर्म से कम्म होने में पूर्ववर्ती र को परवर्ण म अपना सवर्ण बना लेता है। लै० में pinque से quinque भी इसी नियम से हुआ है। कार्य से कज्ज, स्वप्न से सिविण आदि प्राकृत में इसके अनेक उाहरण मिलते हैं। लौकिक संस्कृत की संधि में भी पर्याप्त उदाहरण मिलते हैं। (देखो-'झला जश झशि' जैसे सूत्र परसवर्णादेश के विधायक हैं ।) तुलनात्मक भाषा-शास्त्र के अनुसार स्वशुर और स्मश्रु का दंत्यस इसी परसावर्ण्य के कारण ही तालव्य हो गया है । यथा-श्वशुर, श्वभू, श्मशू इत्यादि। इसी सावर्य विधि के अंतर्गत स्वरानुरूपता का नियम भी श्रा जाता है; जैसे--मृग-वृष्णिका के मअन्तरिहा और मिश्र-तिरिहा दो रूप होते हैं अर्थात् मत्र अथवा मित्र के अनुसार ही 'त' में अकार अथवा इकार होता है। सावर्य के विपरीत कार्य को असावर्ण्य अथवा वैरूप्य (विरूपता) कहते हैं । जव एक ही शब्द में दो समान ध्वनियाँ उच्चरित होती हैं