पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/१९५

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१७० भाषा-विज्ञान पड़ती हैं, अतः संस्कृत की कठिनाई इन विकारों का कारण कभी नहीं मानी जा सकती। इस विजाति-संसर्ग के अतिरिक्त सांस्कृतिक विभेद भी भाषा में विभेद उत्पन्न करता है। यदि सभी वक्ताओं की संस्कृति एक हो और वे एक ही स्थान में रहते हों तो कभी विभापाएँ हो न बनें; पर जब यह एकता कम होने लगती है सभी भापा का नाम रूप-मय संसार भी बढ़ चलता है। यदि स्त्री, बालक, नौकर-चाकर आदि सभी पढ़े-लिखे हो तो ये अशुद्र उच्चारण न करें और न फिर अनेक ध्वनि-विकार ही उत्पन्न होंध्वनि-विकार अपढ़ समाज में ही उत्पन्न होते हैं। इसी से ध्वनि-विकार और शिक्षा का संबंध समझ लेना चाहिए। इन तीन बड़े और व्यापक कारणों की व्याख्या के साथ ही यह भी विचार करना चाहिए कि वे भीतरी कौन से कारण हैं जिनके सहारे चे विकार जन्म लेते और बढ़ते हैं। (१) श्रुति--पीछे हम पूर्व-श्रुति और पर श्रुति का वर्णन कर चुके हैं। यदि विचार कर देखा जाय तो अनेक प्रकार के प्रागमों का कारण श्रुति मानी जा सकती है। स्त्री से इन्त्री, धर्म से धरम, नोट न होट आदि में पाले श्रुति थी । वहीं पीछे से पूरा वर्ण वन बेटी । व और के बागम को तो य-श्रुति और व-श्रुति कहन भी हैं। (२) युद्ध श्रागम उपमान (अथवा अंधमादृश्य ) के कारण भी होते हैं। जैस-दुक्ख की उपमा पर मुक्न में क का पागम ! इसी प्रकार नर्मनी के उपमान पर बला को लोग येनी कहने (३) कुन भागम और मात्रा के कारण भी ना जाने है, -शुद में बंद का बना हो जाता है, सालों में कन्म का काम हो जाता है। (2) गगी-विपर्यय के आहरणों को हम प्रमाद और शक्ति या कर सकते हैं। नभी तो नादमी, चा, चनामा श्रादि का भी रोग प्रामी, कान, माना ग्रादि यना पालने । नगत