पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/१९६

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ध्वनि और ध्वनि-विकार १७१ (५) सुख-सुख-संधि और एकीभार के जो उदाहरण हम पीछे विकारों में दे पाए हैं उनका कारण स्पष्ट ही मुख-सुख होता है . चलइ को चलै, और अउर को और कर लेने में कुछ सुख मिलता है । पूर्व-सायं, पर-सावण्र्य आदि का कारण भी यही दुख-सुख होता है। (६) जो लौकिक व्युत्पत्ति-जन्य एकाएक विकार हो जाते हैं उन्हें हम अज्ञान का फल मान सकते हैं। पर उनमें भी वही प्रमाद और मुख-सुख की प्रवृत्ति काम करती है। (७) लोप, मात्रा-भेद आदि का प्रधान कारण स्वर तथा वल. का आघात होता है। प्राचीन संस्कृत भाषा में जो अपश्नति ( अर्थात् अक्षरावस्थान ) के उदाहरण मिलते हैं वे स्वर के कारण हुए थे। प्राकृतों में जो अनेक प्रकार के ध्वनि-लोप हुए हैं उनमें से अनेक का कारण वल का घटना-बढ़ना माना जाता है । जो वर्ण निर्बल रहते थे वे ही पहले लुप्त होते थे, जो स्वर निर्वल होते थे वे ह्रस्व हो जाते थे, इत्यादि। भिन्न भिन्न भाषाओं में एक ही काल में और एक ही भाषा में भिन्न भिन्न कालों में होनेवाले ध्वनि-विकारों की यथाविधि तुलना करने से यह निश्चित हो जाता है कि ध्वनिचों में विकार कुछ नियमों के अनुसार होते हैं और जिस प्रकार प्रकृति के अनेक कार्यों को देखकर कुछ सामान्य और विशेष नियम बना लिए जाते हैं उसी प्रकार ध्वनियों में विकार के कार्यों को देखकर ध्वनि-नियम स्थिर कर लिए जाते हैं, पर प्राकृतिक नियमों और ध्वनि-नियमों में बड़ा अंतर यह होता है कि ध्वनि-नियम काल और कार्यक्षेत्र की सीमा के भीतर ही अपना काम करते हैं। जिस प्रकार न्यूटन का गति-नियम' ( Iaw of motion ). सदा सभी स्थानों में ठीक उत्तरता है उसी प्रकार यह प्यावश्यक नहीं कि प्रत्येक श्वनि-नियम सभी भाषाओं में अथवा एक ही भाषा के सभी कालों में ठीक समझा जाय । ध्वनि-नियम वास्तव में एक निश्चित काल के नि-नियम