पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/२०६

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ध्वनि और ध्वनि-विकार १७९ मूल भारोपीय भाषा में दंत्य और ओष्ठ्य व्यंजनों के अतिरिक्त तीन प्रकार के कठ्य-स्पर्श. थे--शुद्ध-कंठ्य, मध्य-कंठ्य और तालव्य । इनका विकास परवर्ती भाषाओं में भिन्न भिन्न तालव्य-भाव का नियम ढंग से हुआ है। पश्चिमी भारोपीय भाषाओं में अर्थात् ग्रीक, इटाली, जर्मन तथा कैस्टिक वर्ग की भाषाओं में मध्य- कंठ्य और तालव्य का एक तालव्य-वर्ग चन गया और कठ्य-स्पर्शी में ओष्ठ्य w ध्वनि सुन पड़ने लगी; जैसे--लै० que क्वे में। पूर्वी भाषाओं में आर्मेनियन, अल्बेनियन, वाल्टो-स्लाह्रोनिक, तथा आर्य वर्गों में कंठ्य-ध्वनियों में श्रोष्ठ्य-भाव नहीं आया, पर कंठ्य- ध्वनियाँ मध्य कंठ्य ध्वनियों के साथ मिलकर एक वर्ग बन गई। इन्हीं पूर्वी भाषाओं में भूल तालव्य आकर घर्ष-वर्ण वन गए। आर्य-( भारत-इरानी ) वर्ग की भाषाओं में एक परिवर्तन और हुआ था। कंध्य-स्पर्शों में कुछ तालव्य घर्ष-स्पर्श हो गए। यह विकार जिस नियम के अनुसार हुआ उसे तालव्य-भाव का नियम कहते हैं। नियम-आर्य काल में अर्थात् जब ह्रस्व एe का ह्रस्व अ a नहीं हो पाया था उसी समय जिन कठ्य-स्पर्शी के पीछे (पर में ) हस्त्र प्र, इ अथवा यू i आता था वे तालव्य घर्ष-स्पर्श हो जाते थे। अन्य परिस्थितियों में कंठ्य-स्पर्शी में कोई विकार नहीं होता था। इस ध्वनि-नियम में भी काल, कार्यक्षेत्र और परिस्थिति--तीनों का उल्लेख हो गया है। इस तालव्य-भाव-विधि की जब से खोज हुई है तब से अब यह धारणा कि मूलभाषा में केवल अ, इ, उ ये तीन ही स्वर थे। मान्य नहीं रह गई है । अब ए, ओ आदि अनेक मूल स्वर माने जाते हैं। इसी प्रकार के अन्य अनेक ध्वनि-नियम भाषा-विज्ञान में बनाये जाते हैं। उन्हीं के कारण व्युत्पत्ति में तथा तुलनात्मक ध्वनि-विचार के अध्ययन में बड़ी सहायता मिलती है। जैसे भारतीय आर्य भाषायों के मूर्धन्य-भाव का नियम अथवा स्वनंत वर्गों का नियम आदि जाने