पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/२१२

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रूप-विचार १८५ तिष्ठन्त प्रकरण में क्रियारूपों का वर्णन आता है और उसम लकारार्थ आदि अन्य ऐसी बातें भी आती हैं जो वाक्य-विचार का अंग होती हैं, पर वाक्य-विचार का यह रूप-पक्ष रखे बिना रूप विचार ( अथवा व्याकरण) की सांगता नहीं हो सकती। अंत में वैदिक प्रक्रिया परिशिष्ट के रूप में आती है। इनमें उन रूपों का विचार किया गया है जो उस समय की भापा में आर्य माने जाने लग थे, अर्थात् जो पुरानी भाषा के शब्द होने पर भी लोक में चल रहे थे। यह लौकिक ( वर्तमान ) और वैदिक ( काव्यभाषा में प्रयुक्त होनेवाले परंपरा से प्राप्त प्रयोग ) का भेद पूर्णतया वैज्ञानिक है। यह व्याकरण के ऐतिहासिक अध्ययन में विशेष सहायता देता है। अब विचार कर देखा जाय तो भूमिका के दो प्रकरण तथा कारक' और लकार के प्रकरणों को छोड़कर शेष सभी प्रकरण रूम से संबंध रखते हैं। इन रूपों का भी विचार दो प्रकार से हुआ है-- एक तो किस प्रकार शब्द विभक्ति युक्त होकर वाक्य में प्रयोगाह बने हैं और दूसरे शब्दों की अंतरंग रचना (विभक्ति जुड़ने के पूर्व की रचना ) किस प्रकार हुई है। वाक्य-रचना की दृष्टि से पहले प्रकार का और शब्द-रचना की दृष्टि से दूसरे प्रकार का अध्ययन महत्त्व का है। पहले को हम रूप-विचार का वाक्य-पक्ष और दूसरे को शब्द-पक्ष कह सकते है। {१) कारक और लकार का भी सिद्धांतकौमुदी में रूप-पक्ष से ही वर्णन हुआ है, अतः वाक्य-विचार का इतना अंश व्याकरण और रूप-विचार के लिये अनिवार्य है। इसी प्रकार भूमिका में ध्वनि का विचार भी अनिवार्य है। ध्वनि और अर्थ का सर्वथा त्याग करके रूप का विचार हो ही नहीं सकता। (२) इसी प्रकार अर्थ-विचार में भी दो पक्ष होते हैं वाक्य-पक्ष और शब्द-पक्ष । इसी कारण वाक्य-विचार में भी दो पक्ष हैं-रूप-पक्ष और अर्थ-पक्ष । वास्तव में देखा जाय तो वाक्य-विचार रूप और अर्थ के प्रकरणों में ही नवसित हो सकता है।