पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/२१५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१८८ भाषा-विज्ञान और हम शब्द से सविभक्तिक और निर्विभक्तिक दोनों प्रकार के शब्दों का अर्थ लेंगे। रूप का सामान्य अर्थ संस्कृत और हिंदी के व्याकरण में एक ही होता है। एक ही शब्द के कारक, काल, लिंग, वचन, पुरुष आदि के अर्थमात्र और रूपमात्र कारण भिन्न भिन्न रूप हो जाया करते हैं। रूप का यही अर्थ इस प्रकरण में भी लिया जायगा। पर भापा-विज्ञान में रूप का ही नहीं, रूप-मान का भी विचार होता है। अतः रूप-मात्र और साधारण शब्द ( अथवा शब्द-रूप ) में क्या भेद है यह स्पष्ट समझ लेना चाहिए। शब्द की ध्वनि-शास्त्रीय परिभाषा से हमें यहाँ प्रयोजन नहीं है । जिसे ध्वनि-शास्त्री एक ध्वन्यात्मक शब्द मानता है उसमें व्याकरण के अनुसार कई शब्द भी माने जा सकते हैं और इसके विपरीत जिन्हें ध्वनि-शास्त्री अनेक शब्द मानता है उन्हें वैयाकरण एक शब्द मान सकता है। अत: यहाँ हमें एक वैयाकरण के अधिकार से शब्द की परिभाषा करनी है। यह भी सहज नहीं है । विचार करने पर ऐसा निश्चय होता है कि भिन्न भिन्न भाषाओं में शब्द की भिन्न भिन्न परिभाषाएँ होनी चाहिए। अतः हम अर्थ-मात्र और रूप-मात्र की व्याख्या करके आगे शब्द की सीमा दिखाने का यत्न करेंगे। अर्थ-मात्र हम भाषा के उन अंगों को कहते हैं जिनसे भिन्न भिन्न अर्थो (अर्थात् वस्तुओं अथवा भावों) का बोध होता है। और रूप-मात्र उन अंगों को कहते हैं जिनसे उन अर्थो के बीच का संबंध प्रकट होता है। उदाहरणार्थ गाय आ रही है। इस वाक्य में दो शब्द हैं (2) Tar-Vendryes' Language P. 57. (2) e--Vendryes? Language P. 89. (३) 'अर्थ' से संस्कृत में केवल अभिप्राय (meaning) नहीं, अभिधेय (ideas of the concepts) का भी बोध होता है। 'अर्थ उस वस्तु अथवा विषय को कहते हैं जिसे शन्द व्यक्त करता है।