पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/२१६

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रूप-विचार १८९ 'गाय' और 'पा रही है। दोनों शब्दों से अर्थों का बोध हो रहा है-एक से गाय के सत्त्व का बोध होता है और दूसरे से पाने के भाव का अर्थ प्रकट होता है । इस प्रकार ये दोनों अर्थ-मात्र हैं। इस वाक्य में दूसरी बात ध्यान देने की यह है कि इन दोनों में जो उद्देश्य और विधेय का संबंध है वह भी प्रकट हो रहा है। इन दोनों अर्थों में एक विशेष संबंध है जिसे हम तृतीय पुरुष, एकवचन, वर्तमान काल, स्वीलिंग कहकर निर्दिष्ट कर सकते हैं। जिस तत्त्व-विशेष द्वारा यह संबंध प्रकट हो रहा है उसे रुप-मात्र कहते हैं, वह यहाँ तो शब्द में ही छिपा हुआ है पर कई भाषाओं में उसका पृथक् अस्तित्व भी रहता है। इस प्रकार रूप-मात्र सामान्यता एक धन्यात्मक तत्व या अंग ( एक वर्ण, एक अक्षर, अथवा अनेक अक्षर ) होता है जिससे वाक्य में आए हुए अर्थों के बीच का व्याकरणिक संबंध प्रकट होता है । यदि संस्कृत का एक वाक्य लें-राम: शोभनां वेदिमकरोत् (राम ने सुंदर वेदी बनाई थी ) तो उसमें स्पष्ट देख पड़ता है कि राम, शोभन, वेदी और करो के समान ऐसे अक्षर-समूह हैं जो केवल चाक्य- गत अर्थों का अभिधान करते हैं और उनके साथ ही स, अम्, म, अ,त, आदि ऐसे अक्षर भी हैं जो केवल इस बात का बोध कराते हैं कि क्रिया का करनेवाला कौन है, वह क्रिया कब हुई, उसका कर्म क्या था, उस कर्म की विशेषता क्या थी इत्यादि । इस प्रकार पहले अर्थवाचक अक्षर हैं और दूसरे संबंधवाचक । अर्थवाचक को हम अर्थ-मात्र और संबंधवाचक को रूप-मान कहते हैं। यदि हिंदी के उदाहरण लें तो जाता है, जाते हैं, जाली है, जाते हो आदि बाक्यों में प्रयुक्त क्रियाओं में एक 'जा' ही प्रधान (४) यदि चलती भाषा में कहें तो शब्द में अर्थ योर रूप दोनों होते हैं । अतः शन्द के उस अंश को जिससे केवल अभिधेय वस्तु या भाव का बोध होता है 'अर्थ-मात्र', और शब्द के जिस अंश से रूप अर्थात् व्याकरणिक मंबंध का बोध होता है उसे रूप-मात्र कहते हैं।