पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/२२०

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रूप-विचार १९५ मान सकते हैं जिनमें दोनों के कुछ लक्षण मिलते हैं । इस तीसरे वर्ग में ही अंगरेजी, फ्रेंच, हिंदी, मराठी आदि भाषाएँ आ सकती हैं पर हम यहाँ सुविधा के विचार से इन्हें पहले वर्ग में ही रखकर वर्णन करेंगे क्योंकि उनमें अभी पहले वर्ग के ही लक्षण अधिक मिलते हैं। पहले प्रकार की भाषाओं के हम दो उदाहरण लेते हैं संस्कृत 'अभवम्' और अरवी का 'किताव । संस्कृत अभवम् (हुआ) में भू धातु है, अ का आगम हुआ है और अम् भूतकाल की विभक्ति है। इस प्रकार इस एक शब्द में ही उसकी प्रकृति (अर्थात् अर्थमात्र) और रूप-मात्र जुड़े हुए हैं। आगम और विभक्ति को हम प्रकृति से पृथक् नहीं कर सकते । प्रायः प्राचीन भारोपीय भाषाओं के शब्दों में अर्थमात्र और रूपमात्र का ऐसा ही संबंध देख पड़ता है। यही दशा सेमेटिक' में भी देख पड़ती है । अरबी में कतव ( उसने लिखा है), कातिव (लेखक) और किताव (पुस्तक अर्थात् जो कुछ लिखा जाता है ) में एक ही धातु है, केवल अपश्रुति के द्वारा रूप का भेद दिखाया गया है। यहाँ पर अपश्रुति ही रूपमात्र है। यहाँ विना परप्रत्ययों की सहायता के ही अनेक शब्द निष्पन्न हो जाते हैं। इस प्रकार सेमेटिक शब्दों में अर्थमान और रूपमात्र के बीच का बंधन और भी अधिक दृढ़ और अभेद्य होता है। दूसरे प्रकार की भाषाओं में से यदि हम चीनी का उदाहरण लें तो हम देखते हैं कि वह संस्कृत और अरवी के समान भारोपीय और (१) अरबी में केवल संज्ञा के ही नहीं क्रियाओं के मी ऐसे रूप मिलते हैं। यहाँ संज्ञा का उदाहरण देने से यह भ्रम होना चाहिए कि संस्कृत क्रिया के समान प्रकृति और प्रत्ययवाली क्रियाएँ अरबी में नहीं होती । उदाहरण के लिये देखा ( Vendryes Language P. 80) उकतुल (मारता है) और मकतूल (मारा)।