पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/२२२

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रूप-विचार . १९७ है। के लिये चाहे हम सेवमिसलेरदिर कहें अथवा सेवमिसदिरलेर कहें। दोनों का अर्थ एक ही होता है। 'सेव' प्रकृति है और शेष सब प्रत्यय हैं। प्रत्ययों के हटाने बढ़ाने की हमें प्राय: स्वतंत्रता रहती है, केवल धातु का अपना निश्चित स्थान रहता है, उसके पीछे लिंग, वचन, कारक आदि के द्योतक प्रत्ययों को हम जहाँ चाहें रख सकते हैं। हम प्रत्येक प्रत्यय को रिक्त प्रत्यय-शब्द के समान किसी भी शब्द के साथ काम में ला सकते हैं। पर इस स्वतंत्रता का यह अर्थ नहीं होता कि इन प्रत्ययों में भी कोई स्वतंत्र अर्थ रहता है। वे तो उसी प्रकार द्योतक होते हैं जैसे संस्कृत, ग्रीक, लैटिन आदि के परतंत्र प्रत्यय । अत: कार्य की दृष्टि से सभी प्रत्यय (अर्थात् रूपमात्र ) बरावर होते हैं। केवल घूमने फिरने की स्वतंत्रता उन्हें न्यास-प्रधान और संयोग-प्रधान भाषाओं में अधिक मिल जाती है। इन रूपमात्रों के स्वतंत्र और पृथक् प्रयुक्त होने का सबसे अच्छा उदाहरण अमेरिका की कुछ भाषाओं में मिलता है। उन भाषाओं में वाक्य के प्रारंभ में सब रूप-मान रख दिए जाते हैं तव सब प्रकृति-शब्द आते हैं। यदि हमें कहना है कि उस आदमी ने उस स्त्री को छुरे से मार डाला तो वाक्य बहुत कुछ इस प्रकार का होगा-वह-उसको से। मारना-आदमी--स्त्री. छुरा। इस प्रकार यहाँ रूप-मात्र सबके सब अपनी पृथक नगरी वसाकर रहते हैं। यदि हम इस परतंत्र और स्वतंत्र की भेद-दृष्टि से अँगरेजी और हिंदी को देखें तो हमें इन भारोपीय भाषाओं में भी स्वतंत्र रूपमात्र मिलने हैं। मिलने को तो संस्कृत और ग्रीक में भी इति और अन के समान स्वतंत्र रूप-मात्र मिलते हैं। हिंदी में प्रश्न करने के लिये क्या' का प्रयोग किया जाता है वह 'क्या' एक रूप.मात्र है जैसे क्या वह गया' में 'क्या' एक रिक्त शब्द है। इसी प्रकार अँगरेजी और हिंदी की अनेक सहायक क्रियाएँ भी रिक शब्द मानी जा सकती हैं; जैसे do, shall will, था, होना, जाना (मर जाना) इत्यादि । हिंदी के परसर्ग भी तो रिक्त