पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/२३०

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रूप-विचार २०७ संस्कृत शब्द के विश्लेषण के लिये उसके स्वर और अपश्रुति का भी विवेचन होना चाहिए क्योंकि ये भी रूप-मात्र होते हैं। इसी प्रकार समास भी संस्कृत शब्द की एक विशेषता है। स्वर और अपश्रुति समास द्वारा भी शब्द की सिद्धि होती है । संस्कृत समातों का अध्ययन भाषा के विकास की दृष्टि से बड़े महत्त्व का होता है। पहले छोटे समास होते थे और पीछे बड़े लंबे लंबे समासों का प्रयोग बढ़ गया था। भाषा-विज्ञान के अनुसार, परवर्ती संस्कृत के लंबे समास संस्कृत भाषा के व्यवहित होने की प्रवृत्ति के द्योतक हैं । यदि संस्कृत कुछ दिन और लोक में ही रहती तो वह व्यवहित हो जाती । उसकी ही बहिन-बेटियाँ तो व्यवहित होकर ही अपना वंश बढ़ा सकी । संस्कृत के ऐसे समास जिनमें बड़े बड़े वाक्य अंतर्भूत हो जाते हैं इसी प्राकृत प्रवृत्ति के ज्ञापक हैं कि वे सव शब्द विना किसी रूप-मान की सहायता के अर्थ-बोध कराने का यत्न कर रहे थे। हम जिन रूपों और रूपमात्रों का साधारण वर्णन अभी तक करते रहे हैं उनमें विकार होता है। उसी विकार के कारण ऐतिहासिक व्याकरण का जन्म होता है पर हमें देखना रूप-विकार है कि वे रूप-विकार ध्वनि-विकार में अंतर्भूत हो जाते हैं अथवा उनसे भिन्न अपना कोई अस्तित्व रखते हैं । ध्वनि- विकार से रूप-धिकार का बड़ा घनिष्ठ संबंध होता है तो भी दोनों में वड़ा अंतर रहता है। अधिक धनि-विकार ध्वनि-मात्र से ही संबंध रखते हैं, उनका शब्दों पर विशेष प्रभाव नहीं पड़ता, पर रूप-विकार प्रायः रूप-मात्र की अपेक्षा शब्द को ही परिवर्तित कर देते हैं। क्योंकि (१) प्राय: संस्कृत में स्वर, श्रपश्रुति तथा समास शब्द-साधक होते हैं। (2) aa—Taraporewala's—A Note on Sanskrit Compounds in the Sir Ashutosh Mookerjee Volume 111 2 PP 449.