पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/२३२

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रूप-विचार २०९ सके अत: दूसरे रूपमात्रों की रचना होती रहती है । पुराने रूपमात्र में कुछ सार्थकता न पाकर अथवा उसमें कुछ विकार देखकर वक्ता तुरंत दूसरे शब्द, रूप-शब्द अथवा रूपमात्र का प्रयोग करने लगते हैं और वही यथासमय विकसित हो जाता है। कथित भाषा में, प्रतिदिन व्यवहार में आनेवाली बोली में दोनों प्रवृत्तियाँ साथ साथ काम करती हैं---एक ओर नाना रूपों में समानता और एकता लाने का स्वाभाविक कार्य होता रहता है और दूसरी ओर अर्थ में भेद रखने के लिये रूपों में भी भेद रखने का यत्न होता रहता है। बहुत से रूपों की जटिलता से घवड़ाकर वक्ता सरलता की ओर आपसे आप जाता है । वह थोड़े रूपों से अपना काम चलाना चाहता है, पर संसार और जीवन की जटिलता और विविधता को प्रकट करने के लिए ऐसे नये रूपों की आवश्यकता भी नित्य पड़ा करती है। अत: रूपों का भेद सर्वथा नहीं होता । मृत्यु की आंशिक पूर्ति जन्म-संख्या अवश्य ही कर दिया करती है। वैदिक भाषा में रूपों का बाहुल्य था । एक ओर यह प्रवृति थी कि 'रामा' के समान एक शब्दरूप प्रथमा, द्वितीया, तृतीया, सप्तमी आदि कई विभक्तियों में आने लगा था । दूसरी ओर इस रूप से जो भ्रम हो जाता था उससे वक्ता घबड़ा रहे थे। परिणाम यह हुआ कि पाणिनि के काल तक आते आते 'रामा' और 'गुहा' जैसे आकारांत प्रयोगो का नाश हो गया। फिर प्राकृतों में भी रूपों को सरल और एक समान बनाने की प्रवृत्ति देख पड़ती है साथ ही भेद रखने की प्रवृत्ति भी उचित मात्रा में थी। सच बात यह है कि उपमान के द्वारा हमारे वक्ता रूपों को सरल और समान वनाले हैं अनेक रूपों में से कुछ रूपों से काम चलाते हैं। जैसे संस्कृत में तृतीया' की विभक्ति है 'आ'। हस्तिन् (हाथी) एक (१) संस्कृत में जो सात विभक्तिर्या हैं उनके नामकरण से प्रत्येक देशभाषा के वैज्ञानिक विद्यार्थों को परिचय कर लेना चाहिए- १ प्रथमाकर्ता २ द्वितीया-कर्म ३ तृतीया-करण ४ चतुर्थी-संप्रदान ५ पंचमी-अपादान ६ पष्ठी-संबंध ७ सप्तमी-अधिकरण । फा० १४