पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/२३३

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२१० भाषा-विज्ञान शब्द है उसमें 'या' लगाने से बनता है 'हस्तिना' (हाथी से)। इसी प्रकार, मति, पति, मुनि, भानु आदि शब्दों से आ लगने पर मत्या, प्रत्या, मुन्या, भान्वा आदि रूप बनने चाहिएँ पर हस्तिना के समान शब्दों के उपमान पर लोग मतिना, पतिना, मुनिना, भानुना आदि घोलने लगे। यह 'ना' वाला रूप इतना प्रयुक्त होने लगा कि अधिक शब्दों में यही जीवित रह सका । कहीं कहीं उसके साथ दूसरे रूप भी चलते रहे जैसे मतिना (स्त्रीलिंग) और पतिना के साथ मत्या और पत्या भी चलते थे। इसी प्रकार षष्ठी और सप्तमी में जहाँ दो दो रूप विकल्प से प्रयुक्त हो सकते हैं वहाँ भी उपमान की यही लीला देखने को मिलती है। साथ ही इस बात का भी उदाहरण मिल जाता है कि नये रूप के साथ पुराना रूप भी मित्र के समान चला करता है। जब शब्द में कोई ध्वनि-विकार होता है तब वह पहली ध्वनि का नाश करके ही चैन लेता है, पर रूप-विकार अपने स्थानी को निकालना आवश्यक नहीं समझता । यदि पुराना रूप सर्वथा क्षणिक होगा तब तो समय पाकर मर ही जायगा अन्यथा वह भी जीवित रहता है। उपमान का एक बहुत बड़ा उदाहरण है प्राकृत में चतुर्थी का लोप । प्राकृत में चतुर्थी के स्थान में भी षष्ठी आती है। इसमें भी अधिक महत्त्व की बात है पष्ठी विभक्ति की व्यापकता। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिंदी आदि सभी भापाओं में पछी बड़ी व्यापक है। इसका कारण भी उपमान ही है। अपभ्रंश, अवहट्ट और पुरानी हिंदी में जो 'हि' 'ह' श्रादि का बाहुल्य देख.पड़ता है उसके मूल में भी उप- मान का प्रभाव है। जब हम किसी वाक्य का विश्लपण करते हैं सब जान पड़ता है कि वाक्य में आग हुए विभिन्न शब्द विभिन्न प्रकार का कार्य-संपादन करते हैं। श्रर्थात् भाव-प्रकाशन में भिन्न शब्द वाक्य-विश्लेषण भिन्न-भिन्न प्रकार से सहायक होते हैं। अतएव श्रयान् शब्दों का भेद म्प-विकार के अध्ययन में यह जानने की सहज जिलाता होती है कि कौन कौन से शब्द भाव-प्रकाशन में किस किस