पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/२३८

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रूप-विचार भारतीय भाषाओं में द्विवचन नहीं है। इतना ही क्यों, यूनानी, लैटिन आदि अन्य आर्य भाषाओं की प्रतिनिधि आधुनिक योरोपीय भाषाओं में भी द्विवचन विद्यमान नहीं है। इस संबंध में एक बात और ध्यान देने योग्य है कि वैदिक संस्कृत और यूनानी भाषा में जिन वस्तुओं का नैसर्गिक अथवा कृत्रिम युग्म नहीं है उनके लिये जब द्विवचन का प्रयोग होता है तब उनके पूर्व क्रमशः द्वौ और डुओ का व्यवहार होता है। कुछ विद्वानों का अनुमान है कि द्विवचन वास्तव में बहुवचन के अनेक रूपों में से एक विशेष रूप है जो रूढ़ हो गया है । वहुवचन का प्रयोग एक से अधिक वस्तुओं के लिये होता है। समूहवाचक, भाववाचक तथा पदार्थवाचक संज्ञाएँ प्रायः एकवचन में ही प्रयुक्त होती हैं, परंतु जब उन संज्ञाओं का भिन्न भिन्न प्रकार प्रदर्शित करना होता है तब वहुवचन में उनका प्रयोग होता है। कुछ शब्द ऐसे हैं जिनको नित्य बहुवचन कह सकते हैं क्योंकि उनका प्रयोग सदैव बहुवचन में ही होता है । जैसे दारा: (स्त्री), आप: (जल) इत्यादि । संस्कृत, यूनानी, लैटिन आदि भाषाओं की तुलना करने पर पता लगता है कि आदि भारोपीय भाषा में कम से कम सात कारक रहे होंगे। साधारणत: कारकों के द्वारा जितने कारक प्रकार के संबंध प्रदर्शित किए जाते हैं वास्तव में उनसे अधिक संबंध होते हैं। इसी लिये किसी किसी भाषा में कारकों की संख्या बहुत अधिक हो गई है और कहीं कहीं स्पष्टता न होने से कारकों के स्थान में क्रमश: क्रियाविशेषणों तथा संबंधसूचक अव्ययों का अधिकता से प्रयोग आरंभ हो गया। फिनलैंड की भाषा में सात से अधिक कारक हैं जिनके द्वारा अनेक प्रकार के निश्चित संबंध प्रदर्शित होते हैं जो सात कारकों की सीमा के अंदर नहीं आ सकते । जैसे संस्कृत के वृक्षात्' का अर्थ होता है पेड़ से । पर यह निश्चित रूप से ज्ञात नहीं होता कि 'पेड़ के ऊपर से' अथवा 'पेड़ के अंदर से । फिनलैंड की भाषा में ऐसे संबंधों की भिन्नता प्रदर्शित करने के लिये भिन्न भिन्न कारकों का प्रयोग होता है ।