पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/२३९

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२१६ भाषा-विज्ञान संबोधन की गणना कारकों में नहीं होती थी। संकृत में संबंध भी कोई कारक नहीं है । संस्कृत में कारकों का विवेचन करते समय इस बात का ध्यान रखा गया है कि जिनका संबंध क्रिया से हो वे ही वास्तविक कारक गिने जायँ । संबंध कारक का संबंध क्रिया से होने के कारण इसकी गणना कारकों में नहीं की गई है । अतएव संस्कृत में छः ही कारक हैं। यह देखने में आता है कि बहुत सी आर्य भाषाओं में कारकों की संख्या क्रमशः घटती गई है। इसके तीन मुख्य कारण बतलाए जाते हैं- (१) अधिक प्रयोग या प्रयोग का अभाव; (२) रूप की समानता; (३) एक कारक की व्यापार-सीमा का विस्तृत होकर दूसरे कारक को अपने अंतर्गत कर लेना । भिन्न भिन्न कारकों के एकत्रचना में भिन्न भिन्न रूपों का व्यवहार होता था पर द्विवचन और बहुवचन का कम प्रयोग होने के कारण उनमें भिन्न भिन्न कारकों के लिये भिन्न भिन्न रूपों की आवश्यकता नहीं समझी गई । अतएव एक ही रूप कई कारकों के द्विवचन और बहुवचन का काम देने लग गया। संप्रदान और अपादान के द्विवचन और बहुवचन रूप एक हो गए । अपादान और संबंध के एक वचन में भी रूप-साम्य हो गया। कर्ता, कर्म और संबोधन के द्विवचन तथा बहुवचन के रूप सर्वदा समान ही होते हैं । नपुंसक लिंग में कर्ता और कर्म के सभी रूप एक से होते हैं। पाली में संप्रदान तथा संबंध के एक वचन के रूप एक से होते हैं। करण और अपादान के बहुवचनों के रूप भी एक में मिल गाए । द्विवचन में तो कर्ता और संबंध के अतिरिक्त सभी कारकों के रूप एक से होते हैं। इस प्रकार रूप-साम्य ने कारकों की संख्या को कम करने में बड़ी सहायता की। मंबंध की विभक्ति का प्रयोग वैदिक संस्कृत में भी अन्य सभी कारकों के लिये होता था और उसके बाद भी होता रहा । संबंध की विभक्ति की यह व्यापकता प्रायः सभी भारतीय आर्य भापायों में पाई जाती है । इसका कारण यह है कि अन्य कारकों के लिये किनी