पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/२४१

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२१८ भाषा-विज्ञान कुछ विद्वानों का मत है कि संज्ञा शब्दों के उदय के पहले ही सर्वनामों का उदय हुआ होगा। उनका कहना है कि सबसे पहले सर्वनाम "अह" "मैं" इस भाव की उत्पत्ति हुई होगी और अहं से भिन्न जो कुछ था वह दूसरा समझा जाता था । इन दूसरों में जो निकटस्थ थे वे तो "तुम" हुए और जो दूरस्थ थे उन्हें "वे वह" कहा गया। इस प्रकार पहले व्यक्तिवाचक सर्वनामों की उत्पत्ति हुई और क्रमशः उनके अनेक भेद और उपभेद हुए। उत्तम पुरुष और मध्यम पुरुप सर्वनामों में लिंग-भेद नहीं है। यह इनकी प्राचीनता का अच्छा प्रमाण जान पड़ता है । उत्तम और मध्यम पुरुप सर्वनामों में पहले बहुवचन के प्रत्यय नहीं लगते थे। इसका पता इस बात से लगता है कि उनके एकवचन और बहुवचन के रूप सर्वथा भिन्न हैं और एक ही शब्द के रूपांतर नहीं जान पड़ते । जैसे उत्तम पुरुष के एकवचन त्वम्-यूयम्, अहम्-वयम् । उत्तम पुरुप के एकवचन में ही दो शब्दों के रूपांतर पाए जाते हैं, जैसे 'अहम्' और 'माम् । सर्वनामों में कारकों का प्रयोग भी जान पड़ता है पहले कुछ अनिश्चित-सा था । भारोपीय 'मोइ,' यूनानी 'मोई, लैटिन 'मी' अधिकरण का रूप जान पड़ता है। संस्कृत में मयि' का प्रयोग अधिकरण कारक में ही होता है पर यूनानी और लैटिन में संप्रदान कारक में प्रयुक्त होता है संस्कृत में विशेषणों की गणना संज्ञा के अंतर्गत होती है और उन्हें गुणवाचक संज्ञा कहते है। वास्तव में गुणवाचक विशेषण विशेषण भिन्न भिन्न गुणों की संज्ञाएँ हैं । विशेपणों की सृष्टि भिन्न भिन्न वस्तुओं में समानता और विप- मता प्रदर्शित करने के लिये हुई थी और आदि में गुणवाचक विशेषण का ही प्रयोग होता था। धीरे धीरे विशेषण के अन्य भेदापभेदों की श्रावश्यकता पड़ी और उनका व्यवहार होने लगा। संग्ल्यावाचक और परिमागरक विशेषरणों का संबंध संज्ञा से अधिक जान पड़ता है और संतवानर नी वास्तव में सर्वनाम ही है।