पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/२४५

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२२० भाषा-विज्ञान गुणात्मक (Multiplicativc) संख्यावाचक शब्द भी संस्कृत के ही तुल्य हैं । पर हिंदी के शन्नों में सरलता इतनी आ गई है कि हिंदी का पहाड़ा जितनी सुगमता से और जितना शीत्र पढ़ा जा सकता है उतना संस्कृत का नहीं। पूर्णक के गुणों के अतिरिक्त यहाँ अर्द्धगुणा और पादगुणा का भी व्यवहार होता है जैसे दो और श्राधागुना -ढाई गुना । इनी से यहाँ पहाड़े के अतिरिक्त पौवा, अद्धा, पीना, सवैया, डेढ़ा, अया, हता, दौंचा प्रादि का भी बहुत प्रचार है जिससे व्यावहारिक कायों में बड़ी सहायता मिलती है। हमारे अन्धयों के अंतर्गत ऐसे शब्द याते हैं जो सब लिंगों और वचनों में एक से रहते हैं। उनके रूप में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता। अव्यय वास्तव में भिन्न शब्दों के मविभक्तिक म्प हैं जो प्रयोग के कारण म्द (क) क्रियाविशेषण हो गार है। कई भाषाओं में इनके अनेक उपभेद किए गए हैं। जैसे क्रिया-विशेषण, संबंध-सूचक, समुच्चयबोधक नवा स्मियादिबोधक । इनमें से सबसे प्रधान किया विशेपण हैं। यदि हम किम, दक्षिणा, एना, दिवा, शन, काम, तत, कुत्र, यत्र, नपा, अन्याजे, हेलया, मामा, नाक, मुखं, सुग्वेन आदि शन्दों को लेकर विचार करते है तो यह स्पष्ट देख पड़ता है कि ये मत्र मंत्रा, नवनाम या विशेषणों के कर्म, करण, अपादान और अधिकरण कारकों में से किसी न किसी के रूप है। प्रारंभ में इन शब्दों के बारक-रूपों का व्याहार वैसे ही होता था जैसे अन्य वालों के काका का। परंतु क्रियाओं के साथ इनका घनिष्ठ मंगनी जान मनका अपना मृल पम हो गया; और जिम म्प में किसानों को विशेष अवस्यायों के सूचक हो गए, यी रूप में स्थिर कियाशिम 'प्रत्यय काला । दिदी में मंझायों या नयनामों में मिलिगार प्रयन कियाशियनाग जाने मे अंत र पर, जाने, पी, गामने, मोरे प्रादि पहन विमान्यन मंशा Emनी भित्रिनों का लोपा गया और मियानिशेषण