पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/२४७

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भापा-विज्ञान कारक-सूचकों तथा स्थान और समय सूचक अव्ययों में किसी न किसी प्रकार का कार्य-कारण का सा संबंध है। इस अवस्था में इन क्रिया. विशेषणों का कारक-सूचक न मानकर लोगों ने इन्हें वास्तव में संबंध- सूचकः मान लिया । इस प्रकार समय और स्थान-सूचक क्रियाविशेपण कम, मंप्रदान तथा संबंध के सूचक हो गए । उदाहरण के लिये हम संस्कृत का 'अधि' शब्द ले लेते हैं जो पहले क्रियाशेिपण था, पर प्रागे चलकर संबंध-सूचक होकर कर्म कारक का व्यापार संपादित करने लगा 1 फिर यह धातुओं के साथ लगकर क्रिया से कर्म का अनुशासन करने लगा। अर्थ अधिगच्छति ( धन प्राप्त करता है) पहले अधि अर्थ गतिः । = धन की ओर जाता है) था। पीछे 'अधिगच्छति' के नाथ लगकर 'अर्थ' का अनुशासन करने लगा। वैदिक भाषा में संबंधमूलक क्रियाविशेषणों ने अपनी स्वतंत्रता स्थिर रखी थी, पर पीछ में वह नष्ट हो गई । अतएव यह सिद्धांत निकला कि पहले संज्ञायों से नियाविशेषणों की उत्पत्ति हुई और उनसे संबंधसूचक शब्दों का वर्ग स्थापित हुश्रा। जहाँ एक ही घटना का समय अथवा परिस्थिति बनलानी होती वो नो किमी कारक अथवा उनके पिसे हुए कप क्रियाविशेषण नथा (1) मालोचक संबंधचक द्वारा काम चल जाता है, पर जहाँ पर एफ. कभी दूसरे का कारण या परिणाम हाला है. यहाँ एक 'न्य प्रकार के शब्द की पारश्यकता होती है । ऐन मनी पर पालना नहीं रहता था वरन् दोनों वाक्य नाथ गाव जिले और उन परस्पर संबंध निश्चित करने का या उपर माता पाने में भोजन देते हो, प्रम" या पाला पास्य गुमरे नास्य का कारण पर दोनों कोलकाता के श्रीन नहीं। दों में नका याचिन मागता में पाकिाम कनाथ . परिंग भी किगिन E "नालयों का 777 1nfrinr. 77, 7:. viii: