पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/२४८

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रूप-विचार समुच्चयबोधक शब्दों की उत्पत्ति हुई। जिस प्रकार क्रियाविशेषण और संबंधसूचक अध्यय वास्तव में संज्ञा के सविभक्तिक रुढ़ रूप हैं उसी प्रकार समुच्चयवोधक अव्यय भी सर्वनाम के सविभक्तिक रूढ़ रूप हैं। अतएव ध्यानपूर्वक देखा जाय तो क्रियाविशेषण संबंधवोधक और समुच्चयबोधक अव्ययों में कोई विशेष अंतर नहीं है। चौथा अव्यय विस्मयादिवोधक है । यूनानी लोग इसकी गणना शब्द-भेदों में नहीं करते थे। वास्तव में विस्मयादिबोधक शब्द एक (घ) विस्मयादिबोधक पूर्ण वाक्य होता है । जैसे अहा, ओफ, छि:, धिक इत्यादि। इनमें से प्रत्येक शब्द एक पूर्ण वाक्य की व्यंजना करता है। अतएव विस्मयादिबोधक शब्दों का विचार शब्दों के साथ न होकर वाक्य-विन्यास में होना चाहिए। ऊपर जो अव्ययों का इतिहास दिया गया है उससे ज्ञात होता है कि वास्तव में सभी अव्यय संज्ञा से ही उत्पन्न हुए हैं। विशेपण और सर्वनाम तो एक प्रकार से संज्ञा के अंग ही हैं। अतएव हम कह सकते हैं कि भाषा की आदिम अवस्था में केवल संज्ञा और क्रिया- वाचक शब्द रहे होंगे और जैसे जैसे भाषाएँ विकसित होती गई वैसे वैसे उनके भेदोपभेद होते गए जिसके परिणाम स्वरूप आज हमारी भाषा में शब्दों के आठ भेद पाए जाते हैं। क्रिया के विवेचन में इसके रूपो और प्रयोगों का इतिहास जानने में जितनी कठिनाइयाँ उपस्थित होती हैं उतनी संज्ञा आदि के विपथ क्रिया में नहीं हैं। संज्ञा के रूपों और प्रयोगों के विपय में प्रायः सव आर्य भाषाओं में जितनी समानता है उतनी क्रिया-रूपों में नहीं। इसमें संदेह नहीं कि कारकों में बहुत परिवर्तन और उनका परस्पर मिश्रण हो गया है, पर क्रिया-रूपों में कह अधिक परिवर्तन हुआ है। क्रिया के विषय में भिन्न भिन्न आर्य भाषाओं में तुलना के लिये सामग्री भी यथेष्ट नहीं है जिससे आधुनिक रूपों का