पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/२५०

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रूप-विचार २२५ माने जाते हैं । वैदिक संस्स्त में एक और लकार था जिसे लेट् कहते थे। संस्कृत की अपेक्षा आधुनिक भारतीय भाषाओं में कालों की संख्या अधिक है। अतएव संस्कृत की अपेक्षा इन भाषाओं में भिन्न भिन्न कालों की अभिव्यक्ति अधिक निश्चित रूप में हो सकती है। संस्कृत में भूतकाल के लिये तीन लकार हैं। पहले उनमें परस्पर भेद था और उनका ठीक ठीक व्यवहार होता था पर पीछे से उनमें कोई अंतर नहीं रह गया । भविष्य के लिये दो लकार हैं. पर 'लुट् का प्रयोग काल-निर्णय कराने में विशेष सहायक नहीं जान पड़ता। अतएव कालों में उसकी गणना करना व्यर्थ है। वर्तमान के लिये केवल एक लकार का प्रयोग होता था। इस प्रकार संस्कृत का काल-विभाग पूर्ण नहीं कहा जा सकता । इस विषय में आधुनिक भाषाओं का काल-विभाग अधिक विकसित है। बहुत प्राचीन काल में वर्तमान का प्रयोग तीन अर्थों में होता था--(१) जो नित्य सत्य हो; जैसे दिन-रात का होना, (२ ) ऐतिहा- सिक वर्तमान और (३) भविष्य के अर्थ में ; जैसे 'मैं कल जा रहा हूँ।' भूतकाल के विषय में हम पहले कह चुके हैं कि पूर्ण, अपूर्ण और सामान्य का प्रयोग विना भेद के होता था । पहले 'लिट' का प्रयोग नियमत: विना देखी हुई भूतकाल की घटना ( परोक्ष भूत ) के लिये होता था। पर भट्टि काव्य के लेखक ने 'अभून्नृपः' लिखकर इस नियम को तोड़ दिया है । अतएव पीछे भूतकाल मात्र के लिये लिट् का प्रयोग होने लगा । सामान्यभूत का प्रयोग कभी कभी ऐसी घटना के लिये भी होता था जो आरंभ तो भूतकाल में हुई पर समाप्त अभी हुई है; अर्थात् जिसे हम पूर्ण वर्तमान कह सकते हैं। पूर्ण वर्तमान का इस अर्थ में प्रयोग संस्कृत और स्लैबोनिक भाषा में विशेष रूप से पाया जाता है। हेतुहेतुमद् का प्रयोग भविष्य का अर्थ द्योतित करता था जैसा कि संस्कृत में है। यूनानी आदि भाषाओं में यह एक अर्थ (mood) माना जाता है। फा०१५