पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/२५६

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अर्थ-विचार २२९ का कथन है । तथापि हम, जैसा कह चुके हैं, शब्दार्थ-विज्ञान अथवा अर्थ- विचार नामों का ही व्यवहार करेंगे। अब यह विचार करना चाहिए कि इस विषय के अंतर्गत क्या क्या आता है । कई लोग समझते हैं कि शब्दों की ऐतिहासिक व्युत्पत्ति का ही दूसरा नाम अर्थ-विचार है; अर्थात् व्युत्पत्ति । अर्थ-विचार का विषय शास्त्र और अर्थ-विचार पर्याय हैं। दोनों प्रकार के विवेचनों में बहुत सी बाते समान होने से यह भ्रम हो जाता है, पर वास्तव में दोनों एक नहीं हो सकते । व्युत्पत्तिशास्त्र ध्वनि, रूप और अर्थ तीनों का विचार करके शब्दों का इतिहास रचता है, पर अर्थ- विचार शब्दों के अर्थ और अर्थ-विकार से ही अपना संबंध रखता है। व्युत्पत्ति-विद्या व्याकरण के समान एक कला है पर अर्थ-विचार भाषा- विज्ञान के समान विज्ञान है । इसी से व्युत्पत्ति-विद्या का विद्यार्थी केवल आवश्यकतानुसार अर्थों तथा अर्थ-विकारों का अध्ययन करता है। अर्थ- विचार करनेवाला उन अर्थों तथा अर्थ-विकारों के कारणों तथा नियमों का अध्ययन करता है । इसी से अर्थ-विचार का मुख्य विपय शब्दों की व्युत्पत्ति और उनकी ऐतिहासिक व्याख्या नहीं है। उसका विषय है भाषा का मनोवैज्ञानिक अध्ययन तथा सिद्धांत प्रतिपादन । जैसा प्रोफेसर अरटल ने कहा है अर्थ-विचार के मुख्य प्रश्न ये हैं--(१) पहला प्रश्न यह है कि किसी अमुक भाषा ने अपने भाव और विचार किस प्रकार किन किन सावनों से अभिव्यक्त किए हैं ? इसका भी विचार एक व्यक्ति की दृष्टि से करना होगा। (२) दूसरा प्रश्न है कि वही एक रूप कितने अर्थों का बोध कराने में समर्थ है ? (३) और तीसरा प्रश्न है कि वही एक अर्थ कितने भिन्न-भिन्न रूपों में आ सकता है ? अर्थ-विचार के अंतर्गत और भी अधिक प्रश्न आ सकते हैं- जैसे, क्यों किसी शब्द को अर्थवोध कराने की शक्ति मिलती है ? किस प्रकार शब्दों को शक्ति घटती बढ़ती है ? वह 'शक्ति' है क्या ? मनुष्यों में वह कौन सी शक्ति है जो इस शब्दव्यापार अथवा शब्द-शक्ति से संबंध रखती है ? इत्यादि। अभी पश्चिम के भाषा-शास्त्री भी इतनी 1 1