पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/२६०

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अर्थ-विचार २३१ रखनेवाले नियम ध्वनि-नियरा कहलाते हैं । उच्चारण को अलग करके देखा जाय तो शब्द के दो प्रकार के संबंध बच रहते हैं शब्द का एक संबंध होता है अपने वाक्य से और दूसरा संबंध होता है उस अर्थ (अथवा चीज) से जिसका वह शब्द बोध कराता है। इन को प्रकार के संबंधों से ही शब्द कुछ कहने योग्य होता है, समर्थ और शक्तिमान् होता है। यदि इन संबंधों को हटा लिया जाय तो शब्द में कुछ रह ही नहीं जाता, वह विनिमय और व्यवहार कर ही नहीं सकता। इन दोनों संबंधों को दूसरे शब्दों में अन्वय और शक्ति कहते हैं और दोनों का साधारण ज्ञान हमें यथाक्रम व्याकरण और कोप से होता है । व्याकरण में मुख्यत: अन्वंय-द्योतक अंगों, निपातों अथवा शब्दों का विवेचन रहता है ! गौण रूप से इसमें समास, कृदंत आदि के रचनात्मक प्रत्यय भी आ जाते हैं। कोप में शब्द और उसके वाच्य- अर्थ की व्याख्या रहती है । साधारणतया इसी के सहारे विद्यार्थी शब्द और अर्थ के अन्य स्थिर संबंधों की भी खोज कर लेता है। इन द्विविध संबंधों के विवेचन करने का प्रयोजन यह है कि हम रूप-मात्र और अर्थ-मात्र का भेद कर सके। भाषा के जो अंग अथवा अंश अन्वय-संबंध का बोध कराते हैं वे रूप-मात्र कहे जाते हैं और जो शब्दार्थ संबंध अर्थात् शक्ति का बोध कराते हैं वे अर्थमात्र कहलाते . हैं। जैसे 'राम ने हमसे कहा था' इस वाक्य में तीन रूप हैं-१ राम ने, २ हमसे, ३ कहा था। अव इनमें से 'ने, 'से' और 'आ था' रूपमान हैं और 'राम', 'हम' और 'कह' अर्थ-मात्र हैं। रूप-विचार में रूपमात्रों का और अर्थ-विचार में अर्थमात्रों का विचार होता है। दूसरी बात है बुद्धिगत नियमों और अर्थ-विचार का भेद । जब धार्थ के अनुसार अर्थों में परिवर्तन होता है। तब उन विकारों का बुद्धि- बौद्धिक नियम और गत कारण होता है। उन कारणों का विचार अर्थ-विचार करके जो नियम स्थिर किए जाते हैं वे बौद्धिक नियस कहे जाते हैं। जब केवल अर्थों में विकार आने की तथा उन विकारों के कारणों की विवेचना होती है तब वह