पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/२६२

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अथे विचार २३३ आजकल की देश-भाषाओं में इस प्रकार के तारतम्यसूचक प्रत्यय लुप्त हो गए हैं। उनका कार्य कुछ शब्दों से चल जाता है; जैसे बँगला चेये, गुजराती थी, हिंदी अपेक्षा इत्यादि । मराठी, इंगला और हिंदी तीनों में ही 'अधिक' शब्द से तुलना का बोध होता है। हिंदी का 'और' तथा बंगला का 'आरउ' भी प्रायः इसी अर्थ में आता है। देश-मापाओं के तत्सम शब्दों में ईयस् आदि प्रत्यय पाए जाते हैं, पर इनका विचार तो भाषा के व्याकरण में होता ही नहीं और दूसर यदि विचार किया भी जाय तो भी उनके प्रत्ययों का पृथक अस्तित्व ही नहीं माना जा सकता। संस्कृत वैयाकरण घनिष्ठ, श्रेष्ठ, उत्तम आदि के प्रत्ययों का अर्थ करता है, पर हिंदी का प्रयोक्ता इन वने-तैयार शब्दों को ही लेकर आगे बढ़ता है । वह कहता है-१ वह संबंध और भी अधिक घनिष्ठ है; २ मोहन विद्या में बाधक श्रेष्ठ है; ३ उसका घाम तुमसे भी अधिक उत्तम है इस प्रकार हिंदी, बँगला आदि में अब इस भाव के प्रत्यय विलकुल नहीं रह गए हैं। यह प्रवृत्ति ता संस्कृत तक में पाई जाती है। जैसे श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर और श्रेष्ठतम । एक प्रकार की व्याकरणिक छापवाले सभी शब्दों में से प्रायः एक शब्द अपने सजातीयों से अलग हो जाता है और उस व्याकरणिक भाव का प्रकट करनेवालों में प्रधान बन जाता है। इस प्रधानता पाने के साथ ही वह अपना व्यक्तित्व भी खो बैठता है, अब वह एक व्याकरणिक साधन मात्र रह जाता है। बैंगला में अधिक, भारउ, चेये, वेशी इत्यादि शब्द अर्थपक्ष के विचार से 'तर प्रत्यय के वरावर ही माने जाते हैं। ऐसे शब्दों का स्वतंत्र अर्थ प्रायः लुप्त हो जाता है और यह गौण अर्थ ही सामने आ जाता है। जैसे 'वेशी खाउा' (०), अधिक खाना, कम खर्च आदि प्रयोगों में इन शब्दों का मूल अर्थ है पर 'वेशी छोट' किंवा 'वेशी बड़ (३०) 'यह घर उससे कहीं अधिक छोटा है। के समान वाक्यों में वेशी और अधिक केवल तारतम्य का बोध कराते हैं।