पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/२६३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

भाषा-विज्ञान प्राचीन काल की विभक्तियों के स्थान में परसों का आना विशेष भार के नियम का दूसरा उदाहरण है। संस्कृत, ग्रीक, लैटिन के समान प्राचीन भाषाओं में कती, कर्स, करण आदि के कारक लंबंधों का बोध से प्रत्ययों द्वारा हुमा करता था जो उन शब्दों में अभिन्न रूप से मिले रहते थे। जब इन कारकों से मन:कल्पित सभी संबंधों का बोध स्पष्ट रूप से न हो सका तो वक्ता लोग कुछ क्रियाविशेषणों को भी साथ साथ जोड़ने लगे। संस्कृत में पहले उपसों का क्रिया से ऐसा ही घनिष्ठ संबंध था। वे वैदिक काल में क्रियाविशेषण के समान प्रयुक्त होते थे, जैसे-प्रतित्यं चारुमध्धर 'अग्न आगहि। अस्माकमुदरे आ इत्यादि। पीछे से लौकिक संस्कृत में वे ही क्रिया- विशेपण दो मार्गों से चले । एक ओर वे संबंधवाचक अव्यय बन गए और दूसरी ओर क्रियाओं में अव्यवहित रूप से मिल गए । बँगला, हिंदी आदि देश-भाषाओं के परसर्गो का इतिहास इस 'विशेप भाव' की ही कहानी है। तृतीया के स्थान में के द्वारा', द्वितीया के स्थान में की सेवा में अथवा. पास', चतुर्थी के स्थान में 'के लिये', के वास्ते' आदि के समान प्रयोग तो साधारण हैं, क्याकि वे निजी कारणों से आए हैं पर ने, को, से, में आदि विभक्तियाँ ही वियोग और विश्लेपण द्वारा विशेष भाव की प्रवृत्ति प्रकट कर रही हैं। अँगरेजी के संबंध कारक वाले चिह्न 'में भी इसी विशेष भाव का सिद्धांत पाया जाता है। विभक्ति का यह चिह्न इतना स्वतंत्र हो गया है कि वह दो . तीन शब्दों के बाद भी रखा जाता है, जैसे The King of England's Tower, Asquith and Lloyd George's ministry. बँगला में भी उसी प्रकार संबंध सूचक 'र', कर्मवाचक 'के और अधिकरण-बोधक ते चिह्नों का स्वतंत्र शब्दों के समान प्रयोग होता है । जैसे—कलिकाता, बर्धमान, पाटना उ अलाहाबादेर लोक । राम, (१).दन परखगों तथा वित्तियों का इतिहास हिंदी भाषा, पृ० १३४ में देख र।