पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/२६४

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अर्थ-विचार श्याम उ जदू के दाउ ( अर्थात् दो) । कृष्णनगर उ कलिकाताते देखिव । यदि हिंदी के परसों को देखा जाय तो उनकी भी यही दशा है । 'उन्होंने' में 'न विभक्ति मिली हुई है पर वही 'ने' दूर रहकर भी काम करता है; जैसे राम, श्याम और कृपा ने..... 1 भारतीय देश-भाषाओं के पारिवाचिक प्रयोग भी इसी विशेष भाव के कारण उत्पन्न हुए हैं ! जैसे---हिंदी के पाता हूँ, गया था, और बंगला में गियाछि, जाइतेछि, आसियाछिलाम । इल संबंध में संस्कृत के श्रास, चकार और बभूव से बननेवाले रूप विचारणीय हैं। ये व्यवहिति की नहीं, संहिति की प्रवृत्ति प्रकट कर रहे हैं। दातास्मि के समान प्रयोग अवश्य ही अर्वाचीन रहे होंग। धात्वर्थ अनुसार अथवा किसी ऐतिहासिक कारण से जो शब्द एक बार पयोय रहते हैं या देखने में पर्यायवाची मालूम होते हैं, वे २. भेद (भेदीकरण) ही शब्द जिस व्यवस्थित प्रक्रिया के द्वारा भिन्न भिन्न अर्थो में आने लगते हैं उसको कहते हैं का नियम भेदीकरा अथवा भेदभाव का नियम । बड़ी लीधी बात है कि भाषा का प्रश्न मूल में समाज का प्रश्न है । जिस प्रकार समाज में उन्नति का अर्थ है भेद, उसी प्रकार मापा ज्यों-ज्यों बढ़ती है उसमें भी भेदभाव बढ़ता है। जवाहरण के लिये हम दो बातें लेते हैं। पहले भापा सीखने में बच्चा अभेद की नीति से काम लेता है, पर ज्यों-ज्यों बढ़ने लगता है वह शब्दों और अर्थो में भेद करने लगता है। इसी प्रकार जो अल्पज्ञ निद्यार्थी कोष में एक अर्थवाले शब्दों को रट लेने के बाद व्यवहार में अथवा साहित्य की भाषा में उनका प्रयोग देखता है वह शीघ्र ही भेद भाव का ज्ञान कर लेने पर विशेषज्ञ हो जाती है इतिहास में साधारण सी बात है कि जब मेल से अथवा लड़ाई से किसी प्रकार दो भिन्न-भिन्न भाषाओं अथवा बोलियों का सामना होता है तब एक बार उन व्यक्तियों का शब्दभांडार आपले आप बढ़ जाता है। पर धीरे धीरे उस बढ़े भांडार की व्यवस्था की जाती है; चा तो कुछ शब्द अप्रयुक्त और अप्रसिद्ध हो जाते हैं अथवा पर्यायवाची ।