पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/२६६

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अर्थ-विचार २३७ आदि प्रयोगों में पाठशाला शब्द जातिवाचक हो गया है तो भी उसका रूढार्थ संस्कृत की सामान्य शाला होता है । पाठशाला से छोटाई का वोध हेाता है और विद्यालय अथवा कालेज से बड़ी संस्था का बोध होता है। इसी प्रकार मास्टर और पंडित, लम्प और प्रदीप, बाजार और हाट, आदि के समान पयायवाची शब्दों में भेद के नियम ने काम किया है। ये विदेशी भाषाओं के आए हुए शब्दों के उदाहरण हैं, पर स्वयं उसी तत्सम शब्द से निकले तद्भव शब्द में भी यह भेदीकरण का नियम काम करता है, जैसे-पुस्तक और पोथी, कार्य और काज, धात्री और धाड़ी ( बँ.), देवता और देया (बैं), गर्भिणी और गाभिन इत्यादि। थाड़ी है तो धात्री का ही तद्भव रूप पर वह बँगला में पशुओं के लिये ही प्रयुक्त होता है। इसी प्रकार गाभिन शन्द भी पशु-पक्षियों के ही संबंध में आता है । यह शब्द बँगला, हिंदी, मराठी आदि कई भाषाओं में चलता है । जिस प्रकार तत्लम और तद्भव शब्दों में अर्थ भेद हो जाता उसी प्रकार तत्सम और देशी शब्दों में भी भेदीकरण का कार्य चलता है। उदाहरण के लिये वियाना' देशी शब्द है, वह प्राय: पशुओं के लिये आता है पर प्रसव करना अथवा होना स्त्रियों के लिये प्रयुक्त होता है और अधिक शिष्ट प्रयोग है। सीधी बात तो यह है कि देशी, विदशी, तद्भव आदि कहीं के भी शब्द हों जव ने एकार्थवाचक हो जाते हैं तब शीत्र ही भेदीकरण का कार्य प्रारंभ हो जाता है। कुछ और उदाहरण लेकर इसे स्पष्ट करना चाहिए। बच्चों के लिये जो शब्द आते हैं उन्हें देखना चाहिए । गाय के बच्चे को बच्छा या बछड़ा, घोड़े के बच्चे को बहेडा, भैंस के बच्चे को पड़वा, सुअर के बच्चे को छोना, भेड़ अथवा बकरी के बच्चे को मेंमना, मछली के बच्चे को पोना, साँप के बच्चे को पोआ, और कुत्ते के बच्चे को पिल्ला कहते हैं। इसी प्रकार बँगला आदि सभी भापाओं में भिन्न जीवों के बच्चों के लिये भिन्न भिन्न शब्द आते हैं । अँगरेजी के child, calf, kid, colt, cub श्रादि शब्द भी इसी कोटि के हैं।