पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/२६७

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भापा-विज्ञान समूह-वाचक शब्दों में भी अर्थ-भेद का अच्छा उदाहरण मिलता है, जैसे-मित्रों की टोली, भापात्रों की गोष्टी, पशुओं का गल्ला, डाकुओं का गिरोह, दिहातियों का झुंड, अहीरों का गोल, लड़ाकों की टुकड़ी, चिड्डियों का दल, बगलों की पाँत, जनता की भीड़ इत्यादि। एक ही अंग के अनेक नामों में भी इसी ढंग का भेद होता है; जैसे--- पीठ और पुट्ठा, कोख और पेट, नख और खुर, स्तन और थन, थूथन और नाका यह तो हम पहले ही कह चुके हैं कि धात्वर्थ और यौगिक अर्थ को महत्त्वहीन करनेवाली सबसे बड़ी प्रक्रिया भेदीकरण है। एक ही 'भू' धातु और एक ही उपसर्ग 'अनु' से बने 'अनुमान' और 'अनुभव' में कितना अर्थ-भेद हो गया है। ऐसे उदाहरण संस्कृत में सैकड़ों मिल सकते हैं। बुद्धि और बोध, श्राद्ध और श्रद्धा, वेद और विद्या जैसे शब्द एक ही धातु से निकले हैं और रूप में भी बहुत मिलते हैं पर अर्थ-भेद कितना अधिक हो गया है। मनुष्य का विचार और संस्कार जितना ही बढ़ता जाता है, यह अर्थ-भेद की प्रवृत्ति भी उतनी ही अधिक बढ़ती जाती है। यह प्रसिद्ध वात है कि भिन्न-भिन्न कोटि के व्यक्तियों के कारण एक ही व्यापार के लिये कई शब्दों का व्यवहार होता है। जैसे-देवता को चने का भोग लगाया' है, मैंने मी चना खाया' है, और उन महात्माओं ने भी चना 'पाया' है । इसी प्रकार हम लोग पूज्य और मान्य लोगों के दर्शन' करने जाते हैं और अपने मित्रों को देखने जाते हैं । अर्थात् सामान्य लोगों के बारे में जिन शब्दों का प्रयोग होता है उनका बड़े लोगों के लिये कभी नहीं होता । प्रभविष्णु व्यक्तियों के लिये प्रभविष्णु शब्दों का प्रयोग होता है । यदि किसी सामान्य मनुष्य की मृत्यु होती है तो हम कहते है कि अमुक मनुष्य मर गया; पर किसी बड़े के बारे में कहना पड़ता है हम कहते हैं कि उनका स्वर्गवास हो गया। रास्ते की धूल को धूल अथवा गर्द कहते हैं, पर जब पवित्रता का भाव रहता है