पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/२७१

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२४२ भाषा-विज्ञान का पोषण करके विभक्तियों को जीवित रखनेवाली तीन बातें होती हैं- (१) परंपरा, (२) वाक्य अथवा पाद में शब्द का स्थान, और ४. विभक्तियों के (३) उपमान, जो सहज ही दूसरी मिलती- भग्नावशेष का नियम जुलती रचनाओं से हमारी स्मरणशक्ति पर ' प्रभाव डाल देता है। अगत्या, अर्थात्, दैवात् , हठात् आदि पहले प्रकार के गया वक्त, मुआ बैल, सोया आदमी आदि दूसरे प्रकार के और गढ़त, पढ़त, लईत आदि तीसरे प्रकार के उदाहरण हैं । गया, सोया आदि सस्कृत के गतः, सुप्तः आदि के तद्भव रूप हैं और गढ़त जैसे शब्द संस्कृत के कृदंतों की उपमा पर बने हैं। महंत, श्रीमंत आदि शब्द भी इसी प्रकार बने हैं। कभी कभी कुछ पुराने रूप केवल साहित्यिक भाषा अथवा बोलियों में पाए जाते हैं; जैसे घरे, पाठशाले गाँवे, खरिहाने खेते आदि में संस्कृत की सप्तमी जी रही है, पर प्रयोग अब वोलियों में ही अधिक होते हैं। सिर-माथे रखना और भूखों-मरना के समान प्रयोगों में जो विभक्ति के चिह्न हैं वे दूसरे प्रकार के उदाहरण हैं अर्थात् वे विभक्तियाँ अपने स्थान के कारण अभी तक बच रही हैं। भेद-नियम के समान ही इस विभक्तिशेप के नियम की भी सीमा है। जब अवशिष्ट विभक्तियाँ सर्वथा अप्रसिद्ध और अप्रयुक्त हो जाती हैं तव तो उनका नाश अवश्यंभावी हो जाता है। पर सामान्य नियम यही है कि पुरानी भाषा की बची विभक्तियों से नवीन भापा की शोभा बढ़ती है । श्राप प्रयोगों की महिमा समझनेवाले इस प्रवृत्ति और नियम को भली भाँति समझ सकते हैं। कभी कभी श्रम से हमें जिस अर्थ का भान होने लगता है वही अर्थ उस प्रत्यय अथवा शब्द में भी पीछे से स्थिर होजाता है, जैसे अंग- ५. मिथ्या प्रतीति रेजी श्राक्सन (oxen) को अाक्स का बहुब चनांत रूप समझते हैं। पर वास्तव में पहले का नियम संस्कृत उक्षन् के समान ही आक्सन (oxen ) भी एंग्लो-सक्सन काल में एकवचन की प्रकृति है इसमें कोई भी 19