पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/२७३

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२४४ भाषा-विज्ञान (१) भाव-प्रकाशन की कोई कठिनाई दूर करने के लिये। (२) अधिक स्पष्टता लाने के लिये। (३) किसी विषय अथवा सादृश्य पर जोर देने के लिये। (४) किसी प्राचीन अथवा अर्वाचीन नियम से संगति मिलाने के लिये। प्राचीन भारोपीय काल में उत्तम पुरुष एकवचन, वर्तमान के दो प्रत्यय थे-मि और ओ । आदिष्ट क्रियाओं में ओ और अनादिष्ट में मि लगता था पर उपमान के प्रभाव से यह भेद धीरेधीरे मिट गया। संस्कृत में लोगों ने मि को अपना लिया और ग्रीक में ओ को । यद्यपि दोनों भापायों में ऐसे चिह्न मिलते हैं जिनसे दोनों रूपों का पता चलता है तथपि प्रयोग में एक का ही वोलवाला है । संस्कृत के अस्मि और अवेस्ता के अह्मि की वरावरी का एलि ग्रीक में भी मिलता है। इसी प्रकार संस्कृत के नवा जैसे रूप ग्रीक के मेरो और लेटिन के फेरो जैसे रूपों में स्मारक माने जा सकते हैं। इस प्रकार उपमान भेद को मिटाने और नए शों को सरल से सरल ढंग से गढ़ने में सहायक होता है, वह शब्दों के विनाश और उत्पत्ति दोनों का वीज बनता है। वेदों में श्रावम् और युवम् भी कर्ता द्विवचन के रूप आते हैं पर पीछे से इन रूपों का नाश हो गया क्योंकि संज्ञा के कर्ता और कर्मवाले द्विवचन रूप एक से होते थे। अत: इसी उपमान पर सर्वनाम के वे ही रूप चले जो कर्म के समान थे और आगे चलकर जीवित रहे । कर्म में श्रावाम और युवाम रूप थे। अतः कर्ता में आवम् और युवम् के भी चलने लग, पर जनता तो कम से कम शब्दों से काम लेना चाहती है, अत: थोड़े ही दिनों में कंबल आयाम और युनाम ही रह गए। इसी प्रकार संस्कृत के व्यंजनांत माब्दों का लोगों ने स्वरांत शब्दों के समान बना लिया है। पाली, प्राकृत और हमारी देशभाषाएं इसके प्रभागा है । नरम, पितरम, कर्मन्, मनन आदि सभी हिंदी में अकानांत हैं। साथ ये