पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/२७४

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अर्थ-विचार २४५ " अपभ्रंश काल में कम से कम विभक्तियाँ लगाने में भी यही कठि- नाई से बचने की प्रवृत्ति थी। ध्वनि-विकारों के कारण उस काल में इतने अधिक रूप चल पड़े थे कि लोगों ने सीधे विभक्ति-हीन को अपनाना प्रारंभ किया। प्राकृतोंवाली विभक्तियों को लगाकर बोलने की पुरानी प्रवृत्ति थी। यही साहित्यिक प्रचलन था । पर भिन्न भिन्न ढंग के आभारों के संसर्ग से विभक्ति-हीन रूप भी चल पड़े थे। लोगों ने विभक्ति हीनता को ही सुविधा-जनक पाया और इसको उपमान ने धीरे धीरे पूर्ण कर दिया 1 जब एक प्रधान अपभ्रंश में यह प्रवृत्ति बढ़ी तो दूसरे अपभ्रंशों में भी उसकी देखादेखी होने लगी। इसी प्रकार तो उपमान अपना क्षेत्र बढ़ाता है। अंत में उसका एकछत्र राज्य हो जाता है। आज हमारी भापाओं में विभक्ति-हीनता ही चारों ओर देख पड़ती है। विभक्तियों के यदि ऊपर लिखे इतिहास पर विचार करें तो एक बात और देख पड़ती है। अपभ्रंश के पिछले काल में हं, हु, हि आदि हकारवाली विभक्तियाँ इतनी अधिक आने लगी थीं कि भापा में स्पष्टता कम हो चली थी। अतः इस स्पष्टता को बढ़ाने के लिये लोग दूसरी ओर झुक पड़े कि विना विभक्ति के रूपों को लेकर और उन्हीं में कोई परसर्ग आदि जोड़कर काम चलाने लगे। उपसर्गों और परसों का लक्ष्य प्रारंभ में स्पष्टता बढ़ाना ही था। जिस प्रकार भापा की हानि होती है, उसी प्रकार उसे नई वस्तुओ का लाभ भी होता है। एक ओर कुछ अंगों और अंशों का विनाश है और दूसरी ओर नए रूपों और अर्थों ७. नये लाभ with का विकास होता है । यद्यपि हानि की अपेक्षा लाभ कम ध्यान में आता है तथापि प्राप्ति होती है। यह विचार करनेवालों को. मालूम हो जाता है। उदाहरण के लिये ब्रेशन ने अव्यय दत्त ( Infinitive) कर्मवाच्य और क्रिया-विशेषणों के विकास को नई प्राप्ति माना है। क्रिया-रूपों में अव्यय कृदंत सबसे अधिक अर्वाचीन है। यह वास्तव में सबसे अधिक सामान्य रूप है जिसमें