पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/२८३

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भापा-विज्ञान में पड़कर वे संकुचित हो जाते हैं। इस संकोच की सविस्तर कथा लिखी जाय तो अर्थ-विचार का बड़ा मनोरंजक तथा शिक्षाप्रद अंग तैयार हो जाय । वेअल ने तो लिखा है कि जो लोग ५. अथ -संकोच जिसने ही अधिक सभ्य हैं, उनकी भाषा में उतना ही अर्थ-संकोच पाया जाता है। एक ही गोली शब्द के सिपाही, वैद्य, दरजी. खिलाड़ी आदि भिन्न भिन्न व्यक्तियों के साथ भिन्न भिन्न अर्थ होते हैं। प्रायः व्यवसायी और व्यापारी सदा सामान्य और यौगिक शब्दों से ही अपना काम लेते हैं पर पीछे उनका अर्थ संकुचित हो जाता है । जैस खोलाई, भराई आदि जब चित्रकार के मुख से निकलते हैं तो उनका विशेप और संकुचित अर्थ होता है। पहले जो शब्द पूरी जाति के वाचक थे पीछे वे एक वर्गमात्र के बोधक हो जाते हैं, जैसे-संस्कृत का मृग शब्द ऋग्वेद में पशु मात्र का बाचक था (देखिए-मृगो न भीमः कुचरो गिरिष्टाः)। अभी तक मृगराज शब्द का पशुराज अर्थ होता है। पर पीछे से मृग का अर्थ हो गया केवल हरिण । अँगरेजी के टीयर ( deer ) शब्द की भी ऐसी ही कहानी है। फारसी के मुर्ग शब्द का अर्थ होता है पक्षी मात्र, पर अब बंगला, हिंदी आदि में मुगी से केवल एक पजी का बोध होता है। अवला शब्द भी इसी प्रकार का है। पर इससे अब केवल स्त्री का बोध होता है। पहले प्राय: सभी वानुओं के सामान्य नाम थे । पीछे संकोच बइन बड़न प्रान वे विशेष और रुड़ शब्द बन गए हैं । धान्य का पाले अर्थ या सामान्य धन | पीछे धान्य का अर्थ हुआ अन्न और अब हिंदी में धान का अर्थ होता है केवल चारल और वह भी बिना कदा बनाया चावल । पहले जन्न का अर्थ होता था कोई खाद्य पदार्थ पर रानी अन्न, फल, और दृध आदि में भी भर किया जाना नाम शलाकी नल अर्थ है गुट चा जाय और खाया काय ; शानी भी कहानी नंच की। कया है। पहले कान' को दान करने । यात भी लालमित -