पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/२८४

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अर्थ-विचार २५३ प्रयोगों में यह अर्थ विद्यमान है जैसे स्त्रीरत्र, नररन इत्यादि, पर अब रत्न का मुख्य अर्थ विशेष प्रकार का पत्थर हो गया है। संबंधी शब्द तो संस्कृत में बड़ा व्यापक है पर हिंदी में आकर वह केवल नातेदार' का अर्थ देने लगा। अर्थ संकोच के विपरीत कार्य का नाम है अर्थ-विस्तार । उपाधियों और कुछ गुणों के आधार पर ही नाम रखे जाते हैं, पीछे से उन नामों का रूढ़ और संकुचित अर्थ सामने रह जाता है ६. अर्थ-विस्तार और यौगिक अर्थ भूल जाता है। ऐसी स्थिति में वह नाम आवश्यकता पड़ने पर विशेष से सामान्य की ओर बढ़ने लगता है। जैसे हिंदी में स्याही का मूल अर्थ है काली, पर अव उसका रूढ़ अर्थ हो गया है किसी भी प्रकार की लिखने की स्याही--जैसे काली स्याही, लाल स्याही, नीली स्याही इत्यादि । पहले जो शब्द मंगल अथवा प्रारंभ आदि के द्योतन के लिये सप्रयोजन लाया जाता है, वहीं पीछे से सामान्य अर्थ का वाचक बन जाता है, जैसे श्रीगणेश, विस्मिल्ला आदि आज केवल ग्रंथों तथा पूजनों में ही नहीं, सभी कामों में प्रयुक्त होने लगे हैं। अब श्रीगणेश का रूढ़ अर्थ है प्रारंभ । इसी प्रकार 'इति श्री' का भी अर्थ-विस्तार हुआ है। अब इसका अर्थ होता है समाप्ति । बहुत से व्यक्तिवाचक नाम ऐसे होते हैं जो अपने गुणों के कारण जनता में जातिवाचक बन जाते हैं जैसे गंगा, लंका आदि। प्रान कोई भी पवित्र नदी भारत में गंगा के नाम से पुकारी जाती है । उत्तराखंड के पहाड़ों पर बीसों गंगा है। दक्षिणापथ की गोदावरी, कृष्णा आदि भी यात्रियों तथा तटवासियों द्वारा गंगा ही कही जाती हैं। अधिक स्पष्टता के लिये वे गोदावरी गंगा के समान नामों का व्यवहार करते हैं। इसी प्रकार किसी गाँव की दूरी का बोध कराने के लिये लंका का प्रयोग किया जाता है । 'अरे वह तो लंका के छोर पर रहता है ।' 'फिरंगी' शब्द में भी अर्ध-विस्तार का सुंदर उदाहरण है। पहले यह पुर्तगाली डाक के लिये बाता था। पीई उनकी वर्णसंकर