पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/२८५

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२५४ भाषा-विज्ञान संतानों का अर्थ देने लगा। अंत में अब इस शब्द से यूरेशियन मात्र का बोध होता है । हिंदी और बंगला में फिरंगी से कभी कभी यूरोपियन मात्र का अर्थ भी ले लिया जाता है। बँगला का 'मेये शब्द भी बड़ा मनोरंजक है। पहले यह माई का पर्याय था । पर पीछे से मेये का अर्थ लड़की और स्त्री होने लगा। रानीगंज में तो मेये का पन्नी' अर्थ भी होता है। मेये लोक और मेये मानुस में मेये सामान्य अर्थ में आया है। बड़े महत्त्व के व्यक्तिवाचक नाम भी जातिवाचक बन जाते हैं, जैसे—यहाँ तो कई 'कालिदास' बैठे हैं। अभी अनेकों 'गांधी' की श्रावश्यकता है। एक लिंग के शब्द से दूसरे लिंग का भी बोध कराना तो साधारण यात है । जैस-घोड़े से बोड़ा-घोड़ी दोनों का और विल्ली से बिल्ला- बिल्ली दोनों का बोध होता है। श्रालंकारिक प्रयोगों में अर्थ विस्तार साधारण वात होती है, जैसे--- सीधा पथ, सीधा वचन, सीधा मन, फल खाना, मार खाना, भय खाना, घूस खाना श्रादि । इसी ढंग के उदाहरणों में हम उन्हें भी ले सकते हैं जो एक इंद्रिय का गुण बताने के बाद दूसरी इंद्रियों के साथ भी आने लगते हैं, जैसे-मधुर स्वाद, मधुर शब्द, मधुर गंध, मधुर, स्पर्श, मधुर गीत इत्यादि। कभी कभी सादृश्य के कारण जब एक के अंग का दूसरे पर ग्रारोप किया जाता है तब भी अर्थ का विस्तार हो जाता है, जैसे-पड़े की गर्दन, बोनस का गला, पतंग की पूंछ, नही की गोद, शालू की आँख, अनानास की आँखें, कमल का उदर इत्यादि । इस प्रकार के उदाहरण संस्कृत हिंदी, बैंगला, अँगरेजी श्रादि सभी भाषाओं में बहुत मा प्रोफेनर निटन ने कहा है, सभी प्रकार के अर्थ-विकार दो शीर्षकों के नीचे या मफत साधारणीकरण और असाधारणीकरण मिलने ।