पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/२८८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अर्थ-विचार २५७ प्रत्येक भाषा में कुछ ऐसे शब्द-समूह प्रयुक्त होते हैं जिनको हम चाहें तो नित्य समास कह सकते हैं । अर्थात् विग्रह करने पर उनका अर्थ ही बदल जाता है । जैसे अध्यापक बच्चों को १. एकोच्चरित समूह पढ़ाने के पूर्व कहवाते हैं 'ओना मासी धम्' । यह एक एकोचरित समूह है। इसका पहला रूप था ॐ नमः सिद्धम् । पर आज-कल प्राय: कोई भी इसको नहीं समझता, केवल मंगल के लिये इस पद-समूह का व्यवहार होता है। प्रशस्तियों और सिरनामों में भी ऐसे समूहों के उदाहरण मिलते हैं 'सिद्ध श्री सर्वोपरि विराजमान राज-राजेश्वर' इत्यादि इत्यादि अथवा 'अत्र कुशलं तत्रास्तु' 'शेप शुभम्' आदि । बहुतसी कहावतें भी इसके उदाहरण हैं जैसे 'घर के न घाट के। रूपविचार में हम प्रत्ययविधि और समातविधि का विचार कर चुके हैं, पर वास्तव में समास का अर्थ विचार से अधिक संबंध है। अर्थ ही समास का कारण होता है और वही उसके रूप की व्यवस्था करता है। संस्कृत में तो अर्थ की रष्टि से ही समास के नित्य, अनित्य आदि अनेक भेद किए जाते हैं। अव्ययीभाव, द्वंद्व, तत्पुरुप, बहुव्रीहि आदि का अर्थ-विचार की इष्ट से बड़ा सुंदर अध्ययन होता है। यहाँ हम तत्सम उदाहरणे को नहीं देते हैं, केवल कुछ तद्भव शब्दों को उद्धृत कर देते हैं । विशेष अध्य- यत्न के लिये कोई भी विद्यार्थी व्याकरण लेकर सविस्तर विचार कर सकता है। चीर-फाड़, दौड़-धूप, श्रादमी-जन, देख-भाल । लपक-झपक, हलचल, धर-पकड़, मुंहमुदा दिन, हायपेट, जीतोड़ परिश्रम, कलमुँहा, कछलंपट, मुँहमाँगा, परकटा, नकटा, बदरफट धाम, मुँहफट, मुंहदेखो, बद- मिजाज, पेटपोछना, घरघुसना, घोडमुहा, सस्तमुल्ला, मिठयोल्ला, हाथ- उधरा, दियासलाई, मरभुखा, मुछमुंडा, कामचोर, बॉस का फाटक, राजादरवाजा, बड़ेगाँव, आए दिन, मनभाया, मनभावती गंजोड़ा इत्यादि। फा०१७ १०. समास