पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/२८९

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२५८ भाषा-विज्ञान यह प्रकरण सबसे अधिक महत्त्व का है। यदि पूर्ण रूप से अध्ययन किया जाय तो नामकरण के भीतर शब्दशक्ति का पूरा विचार आ जाता है। कोई नाम किसी वस्तु के लिये कैसे १२. नामकरण चला अर्थात् उसमें वह संकेतग्रह कैसे होने लगा ? फिर उस नाम की शक्ति कैसे बटी अथवा बढ़ी ? इत्यादि बातों का विचार नामकरण में अवश्य आना चाहिए । इन सबका पूरा उत्तर देने के लिये वाचक, लक्षक, व्यंजक, वाच्य, लक्ष्य, व्यंग्य आदि भी की व्याख्या करनी पड़ेगी तभी इस विषय का शास्त्रीय विवेचन हो सकेगा। इस अध्ययन के दो मुख्य ढंग हैं, एक तो पहले संकेतग्रह और शाब्दयोध पर विचार करके यह निश्चय करना कि कैसे द्रव्य, गुण, क्रिया और व्यक्ति इन चारों भेदों के नाम बँट जाते हैं और फिर किस प्रकार पहले एक सामान्य अर्थ होता है, तब मुख्य अर्थ स्थिर होता है, तब उससे आगे लक्ष्य, व्यंन्य, तात्पर्य आदि की उत्पत्ति होती है । इस व्यवस्थित अध्ययन से साहित्य का मर्म समझ में आ जाता है । और दूसरी विधि है बहिरंग परीक्षा की । कुछ संज्ञाओं और नामों को लेकर उनकी उत्पत्ति तथा व्याख्या करना अधिक सरल और मनोरंजक होता है। पहले ढंग से भारतवर्ष के शब्द-शक्तिवालों ने अध्ययन किया है और दृमरे ढंग से अल आदि आधुनिक भाषा-वैज्ञानिकों ने लिखा-पढ़ा है। हम पहले शब्द-शक्ति का मनप में वर्णन करके तब शवों वहिरंग परीक्षा के मंबंध में कहेंगे। माधारणतया लोग वाक्य के अल्पतम सार्थक अवयव को शब्द बहन हैं। संस्कृत शब्दानुशासन के कत्ती पतंजलि से लेकर प्राज्ञ तक के देश-भाषाओं के वैयाकरण शब्द का इसी अर्थ में व्यवहार करने है; कइ प्राचार्यों ने शब्द को बाणी, भाषा या वाक्य सामान्य का उपसहरण भी माना है अर्थात् क्यि और सोनी ने अर्थ में या प्रयोग किया है। शशक्ति के प्रकरण में मी शर का येना होव्याकारिफतथा व्यापक यध लिया जाता है; अन्यथा प्रायन से लेकर पर, वाश्य तथा नाय ताकी शक्तिया का अंतमान