पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/२९२

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अर्थ-विचार २६१ क्रिया का बोध होता है। शब्दार्थ-समीक्षा की दृष्टि से इसी शब्द- किया अर्थात् शब्द-व्यापार का प्राधान्य रहता है। शक्ति के इस व्यावहारिक स्वरूप की व्याख्या करने के लिये उससे संवद्ध शब्द और अर्थ-दोनों की ही आंशिक व्याख्या करनी पड़ती है। अत: शब्द-शक्तियों का-अथात् अभिधा, लक्षणा तथा व्यं जना को-और उन शक्तियों के आनयभूत वाचक, लक्षक तथा व्यंजक तीनों प्रकार के शब्दो को अपना प्रधान विषय बनाता है। शब्द की व्याख्या में थोड़ी अर्थ की भी व्याख्या आ ही जाती है। अर्थ के लिये ही तो शब्द व्यापार करता है। शास्त्रीय ढंग से 'सूत्र-रूप में कहें तो साक्षात् संकेतित अर्थ को कहनेवाला शदनाचक कहलाता है। साधारणतया व्यवहार में देखा जाता है कि लोग में जो 'संकेत' अथवा 'समय' वाचक शब्द प्रचलित रहता है उसी के सहारे शब्द अपने अर्थ का बोध कराता है अर्थात केवल शब्द से श्रोता को अर्थ का बोध नहीं हो सकता ! किसी अनभिज्ञ से यदि कहा जाय कि गाय लाओ तो वह इस वाक्य से क्या समझ सकता है ? उसके लिये इन शब्दों में कोई अर्थ ही नहीं है। वह जानता ही नहीं कि इन शब्दों से किस अर्थ की ओर संकेत किया गया है। पर वही मनुष्य किसी जानकार को कहते सुनता है कि 'गाय लाओ' और देखता है कि दूसरा गाय ले आता । इन दोनों के इस व्यवहार को देखकर वह वाक्य का अर्थ समझ लेता है। इसी प्रकार व्यवहार से वह 'गाय बाँधो', 'घोड़ा लाओ आदि बाक्यों का भी ज्ञान प्राप्त कर लेता है । कुछ वाक्यों का ज्ञान हो जाने पर वह अपनी अन्वय-व्यतिरेकवाली बुद्धि से 'गाय' और 'लाओ' आदि को पृथक पृथक समझने लगता है। पहली बार उसने वाक्य का अर्थ तो समझ लिया था पर उसका व्याकरण न समझ सका था। धीरे धीरे 'गाय' शब्द को कई अन्य शवों के साथ उसी व्यक्ति का अर्थ-बोध कराते हुए देखकर उसका अर्थ समझ लिया, अर्थात् यह जान लिया कि गाय शब्द का किस वस्तु-विशेप में संकेत है। इसी प्रकार 'लाओ किया का