पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/२९९

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२६८ भापा-विज्ञान का बोध करा सकता है, अर्थात् कृष्णसर्पः में नित्य समास है । कुछ विद्वानों ने तो सभी समासों को योगरूढ़ माना है । विग्रह वाक्य से समास में अर्थ-वैशिष्टय अवश्य रहता है; इसी से नैयायिकों के अनुसार समास में एक विशेष शक्ति आ जाती है। सच पूछा जाय तो प्रयोगातिशय से समृद्ध भापा के अधिक शब्दों में योगरूढ़ि ही पाई जाती है। अर्थात्ति- शय के विद्यार्थी के लिये योगरूढ़ि का अध्ययन बड़ा लाभकर होता है। भापा और बोली दोनों में शब्दों का मुख्यार्थ ही सदा पर्याप्त नहीं होता । प्रयोक्ता असाक्षात्संकेतित अर्थों में भी कभी कभी शब्दों का प्रयोग करता है। शब्दों को अपने मुख्य अर्थ से संबद्ध दूसरे अर्थों का बोध कराना पड़ता है। कभी तो ऐसी दि बन जाती है जिससे ये सहज ही अपने मुख्य अर्थ को छोड़ दूसरे अर्थ को लक्षित करने लगते हैं; और कभी कभी प्रयोक्ता का प्रयोजन व्यजित लक्षण करने के लिये उन्हें अपने मुख्य अर्थ से भिन्न किसी दूसरे अर्थ का बोध कराना पड़ता है । जैसे 'आजकल मेरे गाँव में बड़ा मेल है इस वाक्य में गाँव' शब्द रूढ़ि से गाँव में रहने- वालों का बोध कराता है । और एक 'हड्डी की ठठरी' सामने पाकर खड़ी हो गई-~-इस वाक्य में 'हड्डी की टठरी' का सप्रयोजन प्रयोग हुआ है। वक्ता किसी मनुष्य की दुर्बलता और कृशता का प्राविक्य व्यजित करना चाहता है । इसी से हड्डी को ठठरी' अपने मुख्य अर्थ को छोड़ एक क्षीण और दुर्बल मनुष्य को लक्षित कर रही है। ऐसे रूढ़ि अथवा प्रयोजन के अनुरोध से असाक्षात्संकेतित अर्थ में प्रयुक्त शब्द लक्षक कहलाते हैं। उनसे बोध्य अर्थ लक्ष्य कहलाते हैं और उनकी अर्थ-बोध कराने की शक्ति लक्षणा कहलाती है। विचारपूर्वक देखने से स्पष्ट हो जाता है कि लक्षणा में तीन बातें आवश्यक होती हैं। सबसे पहले शब्द के मुख्यार्थ का बोध होना लक्षणा के तीन हेतु चाहिए अर्थात् जब वाक्य में शब्द का प्रसिद्ध अर्थ ठीक नहीं बैठता तभी लक्षणा की संभावना होती है दूसरी बात यह है कि मुख्यार्थ से लक्ष्यार्थ का कुछ न कुछ संबंध .