पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(२) मैने इस पुस्तक के लिखने में अपने सम्मुख यह उद्देश्य रखा था कि भाषा-विज्ञान के मूल सिद्धांतों का दिग्दर्शन मात्र करा दिया जाय और भारतवर्ष को प्राचीन भाषाओं का आधुनिक आर्य-भायात्रों तथा विशेषकर हिंदी से जो कुछ संबंध है, वह दिखला दिया जाय । न मैंने किसी ऐसे ग्रंथ के लिखने का विचार ही किया था जो भाषा-वैज्ञानिकों के लिये श्रादर की वस्तु हो और न ऐसा करने की मुझमें सामर्थ्य ही थी। मैं चाहता था कि हिंदी भाषा में इस विज्ञान की दृद नींव रख दी जाय, जिसमें समय पाकर अन्य विद्वान उस पर सुंदर प्रासाद निर्मित करने का सफलतापूर्वक उद्योग कर सकें और उन्हें नींव खोदने तथा उसे भरकर दृढ़ करने की आवश्यकता न रहे । इस उद्देश्य में मैं कहाँ तक सफल हुआ हूँ, इसके विषय में मैं कुछ कह नहीं सकता और न इसका निश्चय करना मेरा काम ही है। यह दूसरों का काम है। पर मुझे श्राशा है कि मैं विद्वानों को असंतुष्ट करने का कारण न होऊँगा। जिस उद्देश्य से प्रेरित होकर मैंने इस अंथ का लिखना श्रारंभ किया था, उसके लिये सामग्री की प्रचुरता थी। पर मेरी कठिनता यही थी कि किस सामग्री का उपयोग करूँ, उसे किस रूप में संचित करूँ, और किसे छोड़ दूं। जैसा कि पहले कह चुका हूँ, मैं भाषा-विज्ञान की प्रारंभिक पुस्तक अथवा प्रवेशिका उपस्थित करना चाहता था और इसके लिये यह आवश्यक नहीं था कि मैं सूक्ष्म विषयों के विवेचन में दत्तचित्त होता। मैंने बॉप, मंहारकर, मैक्समूलर, प्रियर्सन, हार्नली, बीम्स, केलांग, उलनर, गुगो, देवतिया, हेमचंद्र, लक्ष्मीधर, ग्लूमफील्ड, स्वीट, लकोटे आदि विद्वानों को पुस्तकों तथा लेखों से अमूल्य सहायता पाई है और सामग्री ली है। अतएव मैं उन्हें हृदय से धन्यवाद देता हूँ। यदि इन महानुभावों की कृतियां मुझे प्रास न होती, तो जो मैं लिख सका हूँ, वह भी उपस्थित करने में मैं सफल नहीं हो सकता था। मैने अनुमान किया था कि रेद-दो सौ पृष्ठों में इस ग्रंथ को समास कर गगा । पर व्या ज्यों मैं अपने कार्य में अग्रसर होता गया, त्या त्यों इसका प्राकार रदता गया, यहाँ तक कि यह अनुमान से दूने से भी अधिक