पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/३०१

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. २७० भापा-विज्ञान है। और कभी कभी यही आरोप इतना अधिक बढ़ जाता है कि आरोप का आधार ( अर्थात् विपय ) आरीप्यमाण में अपना अस्तित्व खो बैठता है, विषय का विषयी में अध्यवसान हो जाता है। स्थल में होनेवाली लक्षणा साध्यवसाना कही जाती है। सुविधा के लिये सरोपा और साध्यवसाना के दो दो भेद और कर लिए जाते हैं। आरोप-विपय और पाराषमाण के बीच कोई न कोई संबंध अवश्य रहता है। .भी दोनों में किसी गुण का सादृश्य रहता है, कभी कार्यकारणभाव, कभी अंगांगिभाव, कभी तादर्थ्य, तात्कर्म्य आदि कोई संबंध होता है । गुण-सादृश्य से होनेवाली लक्षण गौणी' और शेप अन्य सबंधों से सिद्ध होनवाली 'शुद्ध' कही जाती है। पहले चार विभाग अर्थानुसार किए गए थे; ये अंतिम दो विभाग संबंध की दृष्टि से किए गए हैं। इस प्रकार लक्षणा छः प्रकार की मानी जाती है--(१) लक्षण-लक्षणा, (२) उपादान-लक्षणा (३) गौणी सारोपा लक्षणा, ( ४ ) गौणी साध्यवसाना लक्षणा, (५) शुद्धा सारोपा लक्षणा, (६) शुद्धा साध्यवसाना लक्षणा। लक्षणा का यह षड्या विभाग बड़ा व्यावहारिक और व्यापक है । शब्द के सभी लाक्षणिक प्रयोग इसके अंतगत आ जाते हैं। देखिए । (१) पंजाब वीर है । (२) वह गाँव भूखों मर रहा है। (३) दोनों घरों में बड़ी लड़ाइ है। (४) आपने (१) लक्षण-लक्षण उसका घर नीलाम कराके उसका बड़ा उपकार किया है। मैं भी आपक सौजन्य पर मुग्ध हूँ। (५) आप परिश्रम इतना अधिक करते है कि आपका सफल होना असंभव दीखता है। प्रथम तीन वाक्यों में पंजाब', 'गाँव' और 'घर-इन तीनों शब्दों ने अपना मुख्यार्थ बिलकुल छोड़ दिया है, उसे केवल यहाँ रहनेवालों का बोध होता है। अत: उनमें लक्षण-लक्षणा स्पष्ट है। चौथे और पाँचवें' वाक्यों में लक्षणा के विचित्र उाहरण हैं। यहाँ उपकार, सौजन्य, मुग्ध, अधिक आदि शब्दों से अपकार, दौर्जन्य आदि विपरीत