पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/३०५

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२७४ भापा-विज्ञान अभिधा द्वारा भी एक शब्द से अनेक अर्थों का बोध होता है । हम प्रत्यक्ष व्यवहार में देखते हैं कि एक शब्द के वाच्यार्थ भी अनेक होते हैं। बहुत-से व्यक्ति-वाचक नाम, अनेक निर्योग अभिधामूला धातुएँ तक अनेकार्थक होती हैं, फिर यौगिक शब्दों शाब्दी व्यंजना का क्या पूछना है ? ऐसी दशा में प्रयुक्त शब्द का इष्ट अर्थ क्या है, यह निश्चित करने के लिये संयोगादि अर्थनियामकों का विचार करना पड़ता है। संयोग किसी किसी शब्द का अर्थ नियमित कर देता है । हरि शब्द का विष्णु, शिव, इंद्र, सूर्य, वंदर, सिंह आदि अनेक अर्थों में व्यवहार होता है। पर जव हार' के साथ शंख-चक्र का संयोग रहता है तब हरि' शब्द का अर्थ विष्णु ही होता है। कभी कभी विप्रयोग ( संयोग का विपर्यय ) भी शब्द के विशेषार्थ का निर्णय कर देता है। 'वज्र-हीन हरि' स इंद्र का ही बोध होता है। वज्रवाले ( देव ) से हो वत्र का वियोग हो सकता है । साहचर्य और विरोध कभी कभी वाच्यार्थ निश्चित कर देते हैं। राधा के सहचर हरि' से सदा कृष्ण का और मृग के विरोधी हरि' से सिंह का बोध होता है । कभी कभी अर्थ अर्थात् प्रयोजन का विचार वाच्यार्थ स्पष्ट कर देता है। 'स्थाणु' का अर्थ 'शिव' और 'खंभा' दोनों होता है, पर 'मुक्ति के लिये स्थाणु का भजन करो' में स्थाणु' से शिव का ही बोध होता है क्योंकि मुक्ति का प्रयोजन शिव से ही सिद्ध हो सकता है । कहीं कहीं प्रकरण से अर्थ का निर्णय हो जाता है, जैसे सैंधव' का अर्थ घोड़ा तथा नमक दोनों होता है, पर भोजन के प्रकरण में प्रयुक्त 'सैरब' नमक का ही वाचक हो सकता है । जिंग अर्थात् गुण-विशेष द्वारा भी किसी किसी शब्द का वाच्यार्थ निरूपित होता है। जैसे 'क्रुद्ध मकरध्वज' से कामदेव का अर्थ निकलता है। मकरध्वज का अर्थ 'समुद्र' भी होता है पर समुद्र किसी युवक अथवा युवती पर क्रुद्ध नहीं हो सकता । इस क्रोध के लिंग से यहाँ अर्थ-निर्णय हो जाता है । दूसरे, शब्द की सन्निधि से भी कई शब्दों का अर्थ स्पष्ट हो जाता है। कर सों सोहत नाग' में नाग शब्द की समीपता से 'कर' का अर्थ 'हाथी की सूडा निश्चित हो