पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/३०७

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२७६ भाषा-विज्ञान नहीं सकता । तो भी इन दोनों शब्दों से परिहास की व्यंजना हो रही है। राधा वृषभ की बहिन अर्थात् गाय हैं और कृष्ण हलधर (बैल) के भाई अर्थात् वैल हैं । गाय बैल की अच्छी जोड़ी बनी है ! इन दोनों शब्दों में से एक के भी हटा देने से यह (परिहास की) व्यंजना न रह सकेगी। हलधर के स्थान में बलदेव अथवा अन्य कोई समानार्थक शब्द रखने से मुख्य अर्थ तो वही रहेगा पर यह व्यंग्यार्थ जाता रहेगा। इस प्रकार व्यंजना शब्द पर आश्रित होने के कारण शाब्दी है; और अभिधा द्वारा ही व्यंग्यार्थ भी निकल आता है इससे व्यंजना अभिधामूला है। यहाँ एक बात और ध्यान देने योग्य है। इन दोनों शब्दों में श्लेप नहीं है। श्लेष सा मालूम पड़ता है; पर प्राचार्यों के अनुसार श्लेषालंकार में दोनों अर्थ मुख्य होने चाहिए और यहाँ, जैसा हम देख चुके हैं, एक ही अर्थ प्रधान है । दूसरा अर्थ केवल सूचित होता है । ऐसे स्थल में शादी व्यंजना मानी जाती है, श्लेषालंकार नहीं । प्रयोजनवती लक्षणा में प्रयोजन व्यंग्य रहता है। जिस प्रयोजन अर्थात् व्यंग्यार्थ को सूचित करने के लिए लक्षणा का आश्रय लिया जाता है अर्थात् लाक्षणिक शब्द का प्रयोग किया लक्षणामूला शाब्दी जाता है, वह (प्रयोजन अथवा व्यंग्य) जिस शक्ति से प्रतीत होता है उसे लक्षणामूला शाब्दी व्यंजना कहते हैं । जैसे 'बंबई विलकुल समुद्र में बसा है। इस बाक्य में 'समुद्र में लाक्षणिक पद है। वक्ता उससे जल-पवन की आर्द्रता व्यंजित करना चाहता है। अभिवा यहाँ है ही नहीं । समुद्र में शहर नहीं बस सकता। अत: 'समुद्र का किनारा' अर्थ करना पड़ता है अर्थात् लक्षणा करनी पड़ती है । इसी लक्षणा में आश्रय लेकर व्यंजना प्रयोजन को व्यंजित करती है । अत: यहाँ लक्षणामूला शाब्दी व्यंजना है । प्रयोजनवती सभी लक्षणाओं में ऐसी व्यंजना होती है । प्रायः सभी लाक्षणिक प्रयोगों में कुछ न कुछ व्यंग्य रहता है। जब वाक्य के वाच्यार्थ से किसी अन्य अर्थ की व्यंजना होती है, तव उसे वाच्यसंभवा आर्थी व्यंजना कहते हैं। यदि कोई नित्य सिनेमा व्यंजना