पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/३०८

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ध्य बना अर्थ-विचार २७७ जानेवाला लड़का कहता है कि "अब संध्या हो गई; पढ़ना समाप्त करना चाहिए" तो उसके व्यसन से परिचित श्रोता तुरंत उसके व्यंग्यार्थ को समझ जाता है। इस वाच्यार्थ में उसकी वायसंभवा यार्थी सिनेमा जाने की इच्छा छिपी हुई है। इस प्रकार यह वाच्चार्थ व्यंग्यार्थ का व्यंजक है। और वाच्यार्थ द्वारा घटित होने के कारण व्यंजना वाच्यसंभवा है। संध्या, पढ़ना आदि के स्थान में सायंकाल, अध्ययन आदि शब्द रख दें तो भी व्यंजना बनी रहेगी। वह शब्द पर नहीं, अथे पर आश्रित है। जव लक्ष्य अर्थ में व्यंजना होती है, वह लक्ष्यसंभवा (आर्थी व्यंजना ) कहलाती है। कोई पिता अपने पुत्र के अयोग्य शिक्षक से कहता है कि अब लड़का बहुत अधिक सुधर गया लक्ष्यसंभवा आर्या है। विद्या ने उसे विनय भी सिखा दी है। व्यंजना उसके आचरण से बड़ा प्रसन्न हूँ! विपरीत लक्षणा से इसका यह लक्ष्यार्थ निकलता है कि लड़का पहले से अव अधिक विगड़ गया है। जो कुछ पढ़ा-लिखा है उससे भी उसने अविनय ही सीखी है। मैं उससे बिलकुल अप्रसन्न हूँ। इस लक्ष्यार्थ से श्रोतृवैशिष्ट्य द्वारा यह व्यंग्य सूचित होता है कि शिक्षक बड़ा अयोग्य है। यदि कोई दूसरा मनुष्य सुननेवाला होता तो यह व्यंजना न हो सकती। पिता शिक्षा से ही कह रहा है, इससे यह अभिप्राय निकल आता है। यह व्यंग्य अभिप्राय लक्ष्यार्थ के द्वारा सामने आता है, अत: चहाँ लक्ष्यसंभवा प्रार्थी व्यंजना होती है। इस प्रसंग में एक बात ध्यान देने की है कि जहाँ लक्ष्यसंभवा आर्थी व्यंजना होती है वहाँ लक्षणामूला शाब्दी व्यंजना भी रहती है। कारण यह है कि जो व्यंग्य लक्षणा का प्रयोजन होता है उसके लिये शादी व्यंजना होती है और जो दूसरा व्यंग्य लक्ष्यार्थ द्वारा प्रतीत होता है उसके लिये प्रार्थी व्यंजना होती है। पहलो व्यंजना प्रयोजन को और दूसरी अन्य अर्थ को प्रकट करती है । जैसे उपर्युक्त उदाहरण में लड़के के दुरा- चरण और अविनय का अतिशय लक्षणामूला शाही व्यंजना द्वारा व्यंजित