पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/३०९

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२७८ भाषा-विज्ञान होता है और शिक्षक की अयोग्यता और सायराधता लक्ष्यसंभवा प्रार्थी व्यंजना द्वारा सूचित होती है। इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि आर्थी व्यंजना शाब्दी के अंतर्गत नहीं, किंतु उससे भिन्न होती है। जब एक व्यंग्यार्थ दूसरे व्यंग्यार्थ को सूचित करता है तब उस अर्थ के व्यापार को व्यंग्यसंभवा प्रार्थी व्यंजना कहते हैं। दो कैदी आधी रात को निकल भागने का निश्चय कर चुके हैं । यंग्यसंभवा श्रार्थी उनमें से एक कहता है, “देखो रजनीगंधा की व्यंजना कलियाँ कैसी खिल उठी हैं। उनके सौरभ से पवन की गति भी मंद हो गई।" इन वाक्यों के वाच्यार्थ से यह व्यंग्य सूचित होता है कि आधी रात हो गई है। चारों ओर नि:स्तब्धता छाई हुई है । इस व्यंग्याओं से उस श्रोता कैदी के लिये एक और व्यंग्य की प्रतीति होती है । वह यह कि इस बेला में निकल भागना चाहिए । इस प्रकार एक व्यंग्य के द्वारा दूसरे व्यंग्य की उत्पत्ति होने से यह आर्थी व्यंजना व्यंग्यसंभवा कहलाती है। इन सभी उदाहरणों में एक बात स्पष्ट है कि किसी न किसी प्रकार का वैशिष्ट्य ही प्रार्थी व्यंजना की प्रतीति का हेतु होता है। पहले उदाहरण में 'संध्या हो गई' इत्यादि में वक्ता का वैशिष्ट्य ही व्यंजना का हेतु है। वक्ता की विशेषता से अपरिचित श्रोता के लिये उस वाक्य में कोई व्यंजना नहीं है। दूसरे उदाहरण में बोधव्य (अर्थात् जिससे कहा जाय उस ) की विशेषता के कारण ही व्यंग्याथ संभव हुआ है। तीसरे उदाहरण में प्रकरण और बोधव्य (श्रोता) दोनों की विशेषता व्यंजना का हेतु हो गई है। रजनीगंधा के खिलने आदि की बात सुन- कर कोई भी सहृदय काल-वैशिष्ट्य से पहली वाच्यसंभवा व्यंजना अवश्य समझ लेगा, अर्थात् निशीथ वेला की प्रतीति उसे हो जायगी । पर इस व्यंग्य से उत्पन्न दूसरे व्यंग्य को प्रकरण और बोधव्य के ज्ञान द्वारा ही कोई समझ सकता है। कैदीवाले प्रकरण को जानना इस व्यंजना के लिये आवश्यक है।