पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/३१५

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भाषा-विज्ञान आरंभ में ही हम कह देना चाहते हैं कि भारतीय लिपि को विदेशी सिद्ध करने और उसकी प्राचीनता को अमान्य करने में तो अधिकांश विदेशी मतों की परीक्षा विदेशी विद्वान् एक मत हैं किंतु भारत की आदिम ब्राह्मी लिपि किस विदेशी लिपि की अनुकृति है, और किस समय के आसपास यह अनुकरण हुआ, इन तात्विक प्रश्नों पर किन्हीं भी दो विद्वानों का मत नहीं मिला। इन दोनों आरोपों की संदिग्धता इतने से ही परिलक्षित हो जाती है। उदाहरणार्थ कुछ विद्वान् ब्राह्मी लिपि की उत्पत्ति हिअरेटिक-मिस्त्र की, कुछ क्युनिफार्म असीरिया की, कुछ फिनिशियन अथवा उसकी हिमिअरेटिक शाखा से, कुछ अरमइंक, और कुछ खरोष्ठी लिपि से मानते हैं। आइजक टेलर का मत है कि इनमें से कोई भी लिपि ब्राह्मी से नहीं मिलती अतः उसकी उत्पत्ति किसी अज्ञात लिपि से हुई होगी जिसका अब तक पता नहीं चला। संभवत: वह ओमन, हंड्रमांट या श्रोर्मज के खंडहरों की किसी विलुप्त लिपि की संतान है। राइस डेत्रिस इस मत को भी प्रामाणिकता नहीं देता उसका कथन है कि यूप्रेटिस नदी के तराई की किसी प्राचीन लिपि से ब्राह्मी लिपि का आविर्भाव हुआ होगा। इसी प्रकार समय के संबंध में भी अत्यधिक मतवैभिन्य है। जहाँ एक ओर वर्नेल आदि अनेक विद्वान् अशोक के कुछ ही पूर्व ब्राह्मी लिपि का प्रचलित होना टहराते हैं वहीं प्रसिद्ध विदेशी अनुसंधानक बेवर लिखता है कि संभवतः भारतीयों ने सेमेटिक अक्षरों के आधार पर ब्राह्मी की सृष्टि ईसवी पूर्व १००० के आसपास की होगी। इन मत-मतांतरों के आधार पर भारतीय लिपि की उत्पत्ति के संबंध में कोई प्रामाणिक निष्कर्ष निकालना अत्यंत कठिन है। फिर जब हम उन तकों या प्रमाणों की ओर ध्यान देते हैं जिनके आधार पर ये स्थापनाएँ की गई हैं तब इनकी प्रमाणिकता और भी डावाँडोल हो जाती है, और हम मौन साधकर रह जाते हैं। कभी कभी तो ऐसी