विषय-प्रवेश १५ सोचते या समझते थे; उनकी रीति-नीति कैसी थी, तथा उनका गार्हस्थ्य, सामाजिक, धार्मिक या राजनीतिक जीवन किस श्रेणी या किस प्रकार का था। भाषा-विज्ञान के इस रोचक और शिक्षाप्रद अंग और भापा-मूलक 'प्राचीन शोध (Linguistic Paleontology) कहते हैं । यह अध्ययन लिपि-विज्ञान, मानव-विज्ञान, वंशान्वय-शास्त्र, पुरातत्व आदि अनेक । शास्त्रों और विज्ञानों से मिलकर प्राचीन जातियों के भौतिक, मानसिक, तथा आध्यात्मिक विकास का संपूर्ण और.रोचक इतिहास प्रस्तुत करता है । इस स्थान पर भापा-विज्ञान के संक्षिप्त इतिहास का दिग्दर्शन करा देना आवश्यक जान पड़ता है । प्राचीन काल में चीन तथा असीरिया देशों में कोप-ग्रंथों की रचना हुई थी, पर भारतवासियों आधुनिक भाषाविज्ञान ने जिस प्रकार भाग के अंग-प्रत्यंग पर पिचार का रंभिक इतिहास किया था उस प्रकार किसी अन्य देश के विद्वानों ने नहीं किया था । यूनानी विद्वानों ने भापा की उत्पत्ति और शब्दों की व्युत्पत्ति की ओर ध्यान दिया था, पर उनकी व्युत्पत्तियाँ प्राय: अट- कलपच्चू हैं, क्योंकि वे भ्रमात्मक सिद्धांत मानकर चले थे। उन लोगो ने हिब्रू भाषा को संसार की समस्त भाषाओं की जननी स्वीकार किया था । प्रसिद्ध यूनानी विद्वान् अरस्तू.ने सबसे पहले शब्दों को आठ भागों में विभाजित किया था और इस विभाग को स्टोइक मतावलंवियों ने अधिक उन्नत किया, जिसके फलस्वरूप उनके स्थिर किये हुए शब्द- विभागों के लैटिन नाम अभी तक अँगरेजी आदि भापाओं में व्यवहृत होते हैं। रोमवालों ने यूनानियों की नकल करने के अतिरिक्त इस क्षेत्र में स्वत: कुछ नहीं किया । सोलहवीं शताब्दी के पश्चात् भापात्रों के अध्ययन की ओर लोगों का ध्यान पुन: आकर्पित हुआ। पर इस समय अलग- अलग भापाओं के अध्ययन की ही प्रधानता थी। अभी तक भाषाओं का तुलनात्मक अध्ययन आरम्भ नहीं हुआ था। लिवनिज ने सबसे पहले हिन्नू के महत्त्व का खंडन किया और संसार की परस्पर संवद्ध भापाओं का विभाग करने का प्रस्ताव किया। अनेक समसामयिक विद्वानों की भाँति बह भी संसार भर के लिये एक विश्व-भाषा का पक्षपाती था। अठारहवीं