पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/३२१

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२९२ भाषा-विज्ञान पुराणों में उल्लेख है कि पुस्तक लिखकर दान करना पुण्य का कार्य है। चीनी यात्री हुएन-त्सांग बीस घोड़ों पर ६५७ पुस्तकें लादकर भारत से चीन लौटा था । निश्चय ही ये पुस्तकें उसे गृहस्थों, भिक्षुओं, राजाओं और मठाधीशों से दान में मिली होंगी। इससे सूचित होता है कि पुस्तक लेखन की प्रचुरता भारतवर्ष में उसी समय हो चुकी थी, जब विदेशों में वह विरलता से प्राप्त थी। उपर्युक्त साक्ष्य को ध्यान में रखते हुए हम विश्वासपूर्वक कह सकते हैं कि भारत की ब्राह्मी लिपि एक स्वतंत्र लिपि है। उसका प्रादुर्भाव वैदिक काल में ही भारतीय आर्यों द्वारा हुआ अहो लिपि संबंधी निष्कर्ष था। हम जहाँ एक ओर यह मानने को तैयार नहीं हैं कि ब्रह्मा जी ने अपने हाथ ब्राह्मी लिपि का निर्माण सृष्टि के आदि में किया, वहीं हम यह भी नहीं स्वीकार कर सकते कि यह लिपि हमने विदेशियों से सीखी और इसका प्रचलन उस समय हुआ जव पश्चिमी एशिया और मिस्र में लेखन कार्य एक सहस्त्र वर्ष या उससे भी अधिक काल से चल रहा था। तंत्र-ग्रंथों में देव-नागरी वर्णमाला का जो विवरण मिलता है उसके आधार पर हम यह नहीं कह सकते कि हमारी वर्णमाला अनादि है, हमें तंत्र-ग्रंथों के निर्माण के समय की खोज करनी चाहिए, तव हम देवनागरी लिपि के संबंध में अधिक स्पष्ट और सुनिश्चित जानकारी प्राप्त कर सकेंगे। जहाँ तक खरोष्ठी लिपि का संबंध है, यह भी अशोक-काल के पूर्व भारतवर्ष में प्रचलित हो चुकी थी। यह सेमेटिक लिपियों की खरोष्ठी लिपि शैली पर अवश्य चली थी किंतु इसका भी स्वतंत्र विकास भारतभूमि में हुआ था। इसका प्रसार भारत के बाहर दूर-दूर तक था और यूनानी सिक्कों में भी इस लिपि का प्रचलन देखा जाता है। खरोष्ठी लिपि विदेशियों के भारत- वासियों से संसर्ग होने पर बनी। यह भारत के पश्चिमोत्तर सीमा- प्रांत से लेकर सुदूर ईरान तक फैली थी। यह व्यापारियों और अह-