पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/३२७

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भापा-विज्ञान भारतवर्ष पर अनेक आक्रमण किए थे। जिस समय वे यहाँ आए थे, उस समय वे अपने पूर्वजों की भाषा बोलते थे। पर यहाँ बस जाने पर अव वे भारतवर्ष की भिन्न भिन्न जातियों में दूध-चीनी की भाँति मिल गए हैं। और जिस प्रकार उनके हूणत्व या सोदियनत्व का अव कहीं चिह्न भी नहीं देख पड़ता, उसी प्रकार उनकी भाषाओं का भी कहीं पता ठिकाना नहीं है। जाति और भाषा का सम्मिश्रण साथ- साथ होता है और दोनों प्रमशः एक दूसरी पर अनलंबित रहती हैं; परंतु दोनों के मिश्रण की मात्रा एक सी नहीं हो सकती । भिन्न भिन्न अवस्थाओं तथा भौगोलिक स्थितियों के कारण उनके मिश्रण की मात्रा में भी भेद रहता है। अतएव किसी जाति की भाषा को उस जाति का अनिवार्य या सहज चिह्न नहीं मान सकते । हम पहले लिख चुके है कि भिन्न भिन्न भाषाओं की परस्पर तुलना करके उनकी शाब्दिक तथा व्याकरणिक समानता के आधार पर हम भाषाओं के वर्ग स्थिर करते हैं। ऐसे वर्गों में अायों का आदिम भागेपीय, सेमेटिक, हेमेटिक, युराल-अल्ताई, निवासस्थान। द्राविड़, एकाक्षर, काकेशस, वांतू आदि मुख्य वर्ग हैं। इन सबका साधारण वर्णन पीछे दिया जा चुका है। यहाँ पर हम भारोपीय वर्ग की आर्य शाखा के संबंध में ही कुछ कहेंगे | हम यह भी देख चुके हैं कि आर्य भाषाओं में किस प्रकार शब्दों और भावों में समानता है। उनकी परस्पर तुलना करके हम इस सिद्धांत पर पहुँचते हैं कि वे सब भापाएँ किसी एक मूल भाषा से निकली हैं। यह सिद्धांत मान लेने पर हमारे सामने यह प्रश्न उपस्थित होता है कि मूल भापा से किस प्रकार और क्यों इतनी उपभाषाएँ हो गई । इसका समाधान यही बात मान लेने से होता है कि प्रारभ में उस मूल भाषा के बोलनेवाले किसी एक स्थान में रहते थे और वहाँ से वे भिन्न भिन्न दिशयों में फैल गए। वे अपनी मूल भापा अपने साथ लेते गए और भिन्न अवस्थाओं तथा परिस्थितियों के कारण उस मूल भाषा में क्रमश: परिवर्तन होता गया और अंत में उन्होंने अपना अपना अलग