पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/३३

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भापा-विज्ञान शताब्दी के अंतिम चरण में यूरोपवालों में संस्कृत के पठन-पाठन की अभिरुचि उत्पन्न हुई। पहले पहल सन् १७६७ में कूरडो नामक फ्रांसीसी पादरी ने अपने देश की एक साहित्यिक संस्था का ध्यान संस्कृत और लैटिन की परस्पर समानता की ओर आकर्पित किया था । पर उक्त संस्था ने उस समय इस प्रश्न को अधिक महत्त्वपूर्ण न समझकर इधर ध्यान नहीं दिया । कूरडो का लेख ४० वर्ष तक अप्रकाशित पड़ा रहा। सन् १७८५ में चार्ल विल्किस ने श्रीमद्भगवद्गीता का और १७८७ में हितोपदेश का अँगरेजी में अनुवाद किया था। सर विलियम जोन्स ने सन् १७९६ के लगभग संस्कृत का अध्ययन किया। उन्होंने लिखा था कि "संस्कृत भापा ग्रीक भापा से अधिक पूर्ण और लैटिन से अधिक संपन्न तथा दोनों भाषाओं से अधिक परिमार्जित है। फिर भी उक्त तीनों भाषाओं की धातुओं तथा नाम-रूपों में बहुत समानता है, जो आकस्मिक नहीं कही जा सकती। यह साम्य इतना अधिक है कि कोई भी भाषा-वैज्ञानिक इन भाषाओं की तुलना और अनुशीलन तब तक नहीं कर सकता जब तक वह यह न जान ले कि इन तीनों भाषाओं की जननी एक सामान्य भाषा है, जिसका अस्तित्व अब नहीं है । गैथिक और केल्टिक तथा प्राचीन फारसी का भी संबंध संस्कृत से घनिष्ट है।" किंतु सर विलियम जोन्स ने तुलनात्मक भापा-विज्ञान के क्षेत्र में अधिक कार्य उस समय नहीं किया। उन्होंने सन् १८०४ में शकुन्तला, मनुस्मृति और ऋतुसंहार का अँगरेजी अनुवाद प्रकाशित कराया। तदुपरांत हेनरी टामस, कोलबुक, विल्सन, बर्नेफ आदि अनेक पाश्चात्य विद्वानों ने संस्कृत का अध्ययन किया और उसके अनेक ग्रंथों का अँगरेजी अनुवाद प्रकाशित कराया। अलेकजेंडर हैमिल्टन नामक एक अँगरेज सैनिक ने भारत में रहकर संस्कृत का ज्ञान प्राप्त किया था। जब इंगलैंड और फ्रांस से युद्ध हुआ, तब ये इंगलैंड जाते समय फ्रांस में रोक लिए गए थे और कुछ दिनों तक पेरिस में कैद रखे गए थे। कैद की दशा में ही इन्होंने कई फ्रांसीसी विद्वानों तथा जर्मन कवि श्लेगेल को संस्कृत पढ़ाई थी । श्लेगेल ने भारतवासियों की भाषा