पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/३३१

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भाषा-विज्ञान अधिक नहीं तो कुछ अंतर अवश्य रहा होगा। महाद्वीपों और महा- सागरों की स्थिति तो बहुत कुछ वैसी ही रही होगी जैसी आज है, पर किसी विशेष स्थान की प्राकृतिक दशा आज से बहुत भिन्न रही होगी । जलवायु में भी यथेष्ट परिवर्तन हो गया होगा। मनुष्य के जीवन पर जलवायु का प्रभाव बड़ा महत्वशाली होता है। सिद्धांत रूप से तो सभी विद्वान् इन सब बातों का मूल्य सीकार करते हैं; पर व्यवहार में लाते समय वे इसके महत्व को भूल जाते हैं। अतएत्र आवश्यकता इस बात की है कि ऊपर जिन जिन बातों की ओर संकेत किया गया है उनका पूरा पूरा ध्यान रखते हुए यदि विद्वत्समाज आर्यों के आदिम स्थान का पता लगाने तो उसे अधिक सफलता प्राप्त होगी। मिन्न-भिन्न विद्वानो ने जिन जिन स्थानों को प्रार्यों का मूल निवासस्थान बतलाया है, वहुत संभव है कि गृहत्याग करने के पश्चात् आर्यों की यात्रा में वे भिन्न भिन्न अस्थायी निवासस्थान अथवा कुछ समय तक आर्य जाति के केंद्र रहे हों। इस संबंध में एक बात और उल्लेखनीय है, और लोकमान्य तिलक ने भी संकेत किया है कि दीदाद ( अवेस्ता का एक अंश) के प्रथम अध्याय में जिन जिन स्थानों की गणना की गई है, संभवत: वे उत्तर ध्रुव से ईरान तक की यात्रा के मार्ग में कम से भिन्न भिन्न विश्राम स्थल रहे हैं। व्हेंबीवाद में मूल आर्य निवास का जिस प्रकार का वर्णन है उसे देखकर लोकमान्य तिलक के सिद्धांत की पुष्टि होती है और पार्यों के उत्तर ध्रुव-बाली होने की कल्पना अधिक युक्ति- संगत जान पड़ती है। इस सिद्धांत के मान लेने पर मैक्समूलर आदि विद्वानों के--जिनका यह कहना है कि आर्य लोग मध्य एशिया के वासी -मत में भी कोई बाधा नहीं पड़ती; क्योंकि उत्तरी ध्रुव से चल कर ही मध्य एशिया से प्रार्य आ सकते हैं। प्रसिद्ध भारतीय इतिहासज्ञ अविनाशचंद्र दास ने आर्यों का आदिम निवासस्थान सप्तलिधु में माना है | बहुन से अन्य विद्वानों ने भी इस मत का समर्थन किया है। भाषा-विज्ञान की सहायता से भी कुछ विद्वानों ने पार्यों की सप्तमधु का मूल निवासी ठहराया है। पर अभी तक इस मत को भी सब विद्वानों